हम ने की कोशिश लिख डालें मुक्तक, गीत छंद जैसा कुछ
जब न हुआ तो सोचा लिख लें छुटपुट ग़ज़ल नज़्म जैसा कुछ।
ये भी न हो सका तो सोचा प्रचलित सी तुकबंदी कर लें।
डालें कोई रील, वीडियो, मौके को किस तरह लपक लें।
फिर भी पावनतम अवसर पर, यदि प्रासंगिक नहीं रह सके
तो क्या हम को पाप लगेगा ?-
जब दो बूढ़े हाथ, तुम्हारे चौरे पर दीपक धरते हैं।
मुझे बताओ तुलसी मैय्या, तुमसे क्या माँगा करते हैं ?
इन हाथों से बचपन वाले सपने, कब के छूट चुके हैं।
जिनमें यौवन के दिन संवरे, सारे दर्पण टूट चुके हैं।
जिनके साथ गुजारा जीवन वो अब यादों में मिलते हैं।
किस्मत के निर्दयी लुटेरे, सारे साथी लूट चुके हैं।
🍁अंतिम पग पर अपने मन को, आखिर किस भ्रम से भरते हैं ?
लगता होगा दीपक रखने से, बेटों की साख चलेगी।
या फिर है उम्मीद इन्हें कि दूध-पूत से बहू फलेगी !
खुद से दूर बसी बेटी की, सुख और शांति मनाते होंगे।
लेकिन क्या ये सब होने से, नहीं हृदय को कमी खलेगी?
🍁क्या मन के एकाकीपन को, आरति के स्वर से हरते हैं?
तुलसी बोली, "सब ने पाया, जो उन को मिलना निश्चित था।
ये जीवन भर समझ न पाए, पाना और खोना निश्चित था।
निस्सहाय, दुर्गति से डरती, मृत्यु माँगती है ये बुढ़िया।
जबकि मृत्यु नियत है वैसे, जैसे ये जीना निश्चित था।"
🍁सुनो बताती तुलसी, "मानव, खोने के दु:ख से डरते हैं।"
इसीलिए ये हाथ हमारे, चौरे पर दीपक धरते हैं।-
देहरी पर लगे उर्मिला के नयन, जो नयन में रहे वो नयन आ रहे।
हाय! थमती नहीं धड़कनों की ये गति, जब से जाना है वापस लखन आ रहे।
हाल मन का सभी से छुपाती रही, धीर खुद ही खुदी को बँधाती रही।
उनको जाते हुए जो दिए थे वचन, सबको विधिवत अभी तक निभाती रही।
क्या कहे, क्या करे कोई इस हाल में, इंद्रियाँ देह की हो चुकीं हैं शिथिल।
आज होता नियंत्रण नहीं नैन पर, सो निगाहें बड़ों से चुराती रही।
गाल पर, होंठ पर, माँग पर, प्राण पर, सुर्ख से जो चढें वो बरन आ रहे।
देखती है अयोध्या सजी किस तरह, अंततः राम के राज ही आ रहे।
आ रही जानकी सब विदेही हुए, राजमहलो में पग तापसी आ रहे।
तीन माँओं की आँखे दिया बन गईं, छह के छह दीप मिल जगमगाने लगे।
क्या प्रजा, दस दिशा, ये धरा, आसमाँ, मिल के गाने लगे, राम जी आ रहे।
जिनकी उतरी खड़ाऊँ सुशोभित रही, राजमहलों में अब वो चरण आ रहे।-
रास्तों ने तो पलकें बिछाईं मगर, मंजिलों की नजर में उपेक्षित हैं हम।
इसलिए आप ही अब चले आइए, देहरी के दिये से प्रतीक्षित हैं हम।
यवनिकाएँ हटा आँख तकने लगीं।
मन के गुलदान में फूल रखने लगीं
रास्ता कौन सा आप को ला रहा,
आहटों को निगाहें परखने लगीं।
आप आएँ तो त्योहार हो जायेंगे, उत्सवों की गली में अनिच्छित हैं हम
एक उम्मीद में रूक गई थी कभी।
झील जो लग रही वो नदी थी कभी।
मन पिघल जाए तो, फिर से बहने लगे
प्रेम की नर्मदा जो थमी थी कभी।
अनुनयों से धरा की दरारें भरें, तब लगे बंजरों में, सुरक्षित हैं हम।
पश्चिमी छोर पर एक जलता दिया।
देखिए साँझ ने बाँह में भर लिया।
आइए अंक में अब शयन कीजिए
प्रीति ने उम्र को शून्य सा कर दिया।
योग होना है या न्यून हो जाएँगे, जिंदगी की तरह ही अनिश्चित हैं हम।-
बेमौसम थोड़ी सी बारिश, आग लगाने को काफी है।
अब ये सोचो, जिनकी हालत नाज़ुक है उनका क्या होगा ?
कैसे अपनी फसल बचाए, अतिवर्षा से कहो किसान।
पका खड़ा है खेत उम्र का, लेकर ही जायेगा जान।
कैसे ऐसी कठिन घड़ी में कोई मन को धीर बंधाएं ?
और कोई अब क्या समझेगा, नहीं समझता जब भगवान।
सावन सुखा, क्वार बरसना, प्राण सुखाने को काफी है।
अब ये सोचो जिनकी हालत नाज़ुक है, उनका क्या होगा ?
जिन आँखों का टूटा छप्पर बिन बारिश ही टपक रहा हो।
गलियारे पर जिनके द्वारे आकर पानी अटक रहा हो
देखो किसने साँझ रसोयीं में, अंतड़िया सुलगायीं हैं।
कैसा लगता उन्हें निवाला, जिनका सीना चटक रहा हो।
तुम्हें एक छोटी सी चिंता, मुँह लटकाने को काफी है।
अब ये सोचो जिनकी हालत नाज़ुक है, उनका क्या होगा ?-
पुरानी किताब को खोलते हुए
किसी सफ़ह की तरह ही खुल जाता है पुराना वक्त भी।
वो वक्त जो परीक्षा खत्म होते ही,
बंद कर दिया जाता है
किताब के साथ किसी अलमारी में।
वही वक्त... जिसमें आखरी दफा
पढ़ी गई थी एक किताब।
एक किताब, जिसे जतन से
"अखबार चढ़ाकर" रखा जाता था संदूक के नीचे।
मन, उस किताब में संग्रहीत
स्मृतियों के पन्नों पर फेरता है हाइलाइटर।
और आँखें आदतन अटक जाती हैं उन्हीं लाइनों में।
जहाँ एक छोटी सी मेज परउम्मीद भरी दो आँखें
देर रात टेबल लैंप के काले होते शीशे में
अपनी रौशन जिंदगी को तलाशती हैं।
रोज़ शाम... लैंप में नया तेल भरते हुए,
अख़बार के टुकड़े से शीशे को चमकाते हुए,
जो इत्मीनान और ललक होती थी निगाह में
वो तेज़, सफेद रौशनी में
दिया लेकर ढूंँढने से भी नहीं मिल रही।
अब कभी फिर से मिल सकेगी क्या....?
शायद....... हाँ/नहीं!-
मैं पीड़ाओं की भाषा हूं, रही आंख में कंकर होकर।
दुख न जाए हृदय तुम्हारा, मुझको पढ़ना पत्थर होकर।
मैं मधूलिका, मैंने खुद के, प्राणों पर आघात किया है।
और उर्वशी भी हूं जिसने, देवलोक का शाप जिया है।
स्वर्ग मुझे अब क्या त्यागेगा, मैं ही इस को त्याग रहीं हूं।
बरसों बरस तपस्या करके, दुःख का आशीर्वाद लिया है।
मैं खुद पर भी हंस सकती हूं, देख चुकी हूं इतना रोकर।
तुम अभिलिप्सित क्या समझोगे, जो सीता ने दुख में पाया।
वो आनंद धरा का जिसके बदले राजवंश ठुकराया।
सोचा है क्यों बदहवास से, मोहन मणि पाने को भटके ?
वंशी, यमुना, और कदम्ब में, क्या था ऐसा जिसे गंवाया ?
धीश द्वारिका क्या सुख पाया, चरणों को आंसू से धोकर।
पीड़ाओं को गीत बनाकर, उसकी धुन पर नृत्य करूंगी।
युगों युगों जो रही उपेक्षित, पीढ़ा का संताप हरूंगी।
आग आसूंओं में ऐसी, जो मिट्टी को सूरज कर देती।
उन्हीं आसुओं के मोती से, मैं अपना सिंगार करूंगी।
देखो नमी धरा के मन की, नाच रही है जिसमें खोकर।-