ए उम्र...
हर दिन तू मुझसे कुछ छीन लेती है,
और बदले में एक बोझ दे जाती है।
कभी ख्वाब छूटते हैं ज़िम्मेदारी के आगे,
कभी हँसी मेरी भीग जाती है।
ए उम्र... तू क्यों इतनी चुप रहती है?
जब मैं अकेले में खुद से बातें करता हूँ, तू सुन तो लेती है।
मैं भी कभी खिलखिलाया करता था,
अब हर शाम एक थकान बन जाती है।
तू बड़ी हुई, और मैं छोटा रह गया,
तेरे पीछे दौड़ते-दौड़ते, मेरी साँस उलझ जाती है।-
"हार का डंक"
हार का डंक
बस एक बार नहीं
हर रात चुभता है
जब खामोश बिस्तर पर
हम गिनते हैं वे फैसले
जो जीत सकते थे हमें
अगर थोड़ा और
खुद पर यक़ीन किया होता
अगर थोड़ा और
दिल से जिया होता।-
“कभी-कभी लगता है कि...”
कभी-कभी लगता है कि
हम ज़िंदा तो हैं
पर उसी दिन के इंतज़ार में
जो कभी आया ही नहीं
या उस आवाज़ के जवाब में
जो कभी दी ही नहीं,
कभी-कभी लगता है कि
हम खुद से मिलना तो चाहते हैं
पर जिस रास्ते से लौटना था
वो छोड़ आए कहीं बहुत पीछे।-
लगता है मैं खोने वाला हूं...
ख़ुद से नाता तोड़ने वाला हूं...
जिस आईने में देखता था खुद को,
उसी से नज़रें मोड़ने वाला हूं...
हर सुबह अब बोझ लगती है,
हर शाम कोड़ने वाला हूं...
दिल की बात लफ़्ज़ों में नहीं,
अब सिसकियों में जोड़ने वाला हूं...
ज़िंदगी के सवाल अधूरे हैं,
और मैं उन्हें छोड़ने वाला हूं...
लगता है मैं...
इक अधूरी दास्तां बनने वाला हूं...-
कहाँ जाऊं…
जब शहर की भीड़ में भी मैं तनहा जाऊं,
हर तरफ़ रौशनी हो, फिर भी मैं अंधेरा पाऊं।
कहाँ जाऊं…
जहाँ रिश्ते ज़िंदा हैं, मगर मैं मरा पाऊं,
चेहरों पे मुस्कान हो, दिल में सज़ा पाऊं।
कहाँ जाऊं…
जब हर जवाब में भी एक सवाल पाऊं,
जीवन की किताब में सिर्फ़ जख़्मों का हाल पाऊं।
कहाँ जाऊं…
जब अपने भी गैर बन जाएं, और मैं संभल न पाऊं,
सांस चलती रहे, पर उसमें कोई वजह न पाऊं।
कहाँ जाऊं…
कभी चीखूं, तो चुप रहूं… कभी रोऊं, तो हंस जाऊं,
मैं खुद में ही गुम हूं, अब किसको बताऊं?
और सच कहूं…
अब तो मैं बस खुद से मिलने को तरस जाऊं।-
अब क्या ही करूं...
हर दरवाज़ा खटखटाया है,
हर फ़ॉर्म भरा है,
हर उम्मीद को
दफ़न होते देखा है।
कहते हैं —
"काबिल बनो, काम खुद मिलेगा,"
मैं पूछता हूं —
कब मिलेगा...?
माँ की आँखें रोज़ पूछती हैं —
"कोई जवाब आया?"
और मैं मुस्कुरा देता हूँ —
एक झूठी तसल्ली बनकर।
दोस्त हँसते हैं,
रिश्तेदार ताने मारते हैं —
"इतना पढ़-लिख कर भी क्या फायदा?"
काश कोई देख पाता,
कि मेरा मन कितना टूटा है।
अब क्या ही करूं...
जब हुनर भी बोझ लगे,
और सपने —
सिर्फ़ सज़ा बन जाएं।-
कैद...
कहते हैं,
ज़िंदगी आज़ादी है।
पर मैं...
काग़ज़ की तरह तह हूँ —
लिखा तो गया,
मगर पढ़ा नहीं गया।
हर दिन किसी और के लिए जिया,
और ख़ुद से दूर चला गया।
मैं उड़ना चाहता था,
पर मेरी परवाज़ को
ज़िम्मेदारियों ने बाँध दिया।
कैद हूँ,
पर जेल में नहीं —
अपने ही ‘कर्तव्य’ के पिंजरे में।-
“जीवन का विषय”
मैंने पूछा —
"क्या है जीवन का विषय?"
किसी पाठ्यक्रम में लिखा नहीं मिला,
किसी किताब में पढ़ा नहीं गया।
कभी माँ की झुकी हुई पीठ में दिखा,
कभी पिता की चुप्पियों में सिला।
कभी दो रोटियों के बीच की भूख में,
कभी अधूरे सपनों की सूनी धूप में।
मैंने सोचा —
"क्या जीवन केवल संघर्ष है?"
तो मन बोला —
"नहीं, ये अनुभवों का विस्तार है!"
कुछ प्रश्न, जो हल नहीं होते,
वही जीवन के अध्याय होते।
और कुछ उत्तर, जो कभी न मिले,
वही इंसान को इंसान बनाते चले।
अब मैं नहीं पूछता —
"क्या है जीवन का विषय?"
क्योंकि अब जान चुका हूँ...
जीवन स्वयं एक उत्तर है,
और हम सब उसकी प्रश्नावली।-
मैंने उसे देखा —
हर रोज़ उस बालकनी में, जहाँ सूरज मुस्कुराना भूल गया था।
वो हँसती थी,
पर उसकी आँखों में परिंदे नहीं थे — बस एक थकान थी।
एक दिन मैंने पूछा,
"तुम कभी बाहर नहीं जाती?"
वो मुस्कुराई, बोली —
"मैं जाती हूँ… ख्वाबों में, मगर लौटना पड़ता है — कर्तव्यों के इस पिंजरे में।"
मैं चुप रह गया,
क्योंकि हम सबने — अपने अपने पिंजरे खुद बनाए हैं।
संदेश -
पिंजरा हमेशा लोहे का नहीं होता,
कभी-कभी वो रिश्तों, उम्मीदों और समाज की परतों से बुना होता है।-
संभालना केवल सहना नहीं,
यह भीतर की टूटन को कहना नहीं।
मुस्कानों के पीछे चुप्पी रचाना,
और आँधियों में दीपक सा टिमटिमाना।
संभालना है — खुद को रोज़ बचाना,
जिन्हें टूटना नहीं, उन्हें ही बन जाना।
कभी चुपचाप सब कुछ सह जाना,
कभी ख़ुद से ही आँखें चुरा जाना।-