जो रिश्ते नाज़ुक होते हैं,
वो टूट जाते हैं,
प्रेम और विश्वास,
रिश्तों की डोर को ,
मजबूत करते हैं।।-
कि सबके मन का योर कोट सजाऊँ,
शब्दों की माला से कुछ ऐसा कर जाऊँ।
मेरे शब्दों के भाव कर्म थक जाते,
तब कर्तव्यों के भाव उदय हो जाते।
थोड़े शब्दों में समर्पित भाव मेरे,
अपनी व्यथा से निश्चिंत घाव मेरे।
तड़प से कुछ ऐसा लिख रहा हूँ,
कुछ मानकों की तलाश कर रहा हूँ।
कि जीवन की पूरी सबकी आस हो,
खुशियों भरा हास परिहास हो।
अपनी ही चाहत का उपहास कर रहा हूँ।
जैसे एक झूठा इंसान बन रहा हूँ।
शब्द की अभिव्यक्ति में खुद को पिरो रहा हूँ,
सत्य की विवशता का सत्य कह रहा हूँ।
सत्य का नित ही,उपहास कर रहा हूँ।
मैं एक जिंदादिल😊अच्छा इंसान बन रहा हूँ।-
मुझे वक्त ने नही बाँधा, मैं खुद वक़्त से बन्धा हूँ।
मेरी बात इंसान से शुरू हुई,इंसानियत पे खत्म होगी।
मेरी शान झाड़ू पोंछा लगाने में ,शरीर को तपाने में,
मुझे कुर्सी की जरूरत नही,क्योंकि इंसानियत नही,
कहीं मेरे कर्मो से कुर्सी बदनाम ना हो जाये।-
झूठ के छलकते पैमाने अट्टहास कर रहे,
सत्य की आवाज़ क्यों शून्यता में खो गयी।
मैं अडिग हूँ,रुकूँगा नही,मुझको जाना वहाँ,
मेरी चाहत चाहत रही पास आकर बुझ गयी।
मैं क्योँ चिल्लाउँ वहाँ कोई सुनता ही नही।
सत्य आवाजें यहाँ सच मे दब कर रह गईं।
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जो भाव भरना था,भरता गया,
इन्सान का भरना, कम नही होता।
जो सँजोना था,सँजोता गया,
इन्सान का सँजोना कम नही होता।
तपिस में सब बहता गया,
पर उसका उबलना कम नही होता।
ज़िन्दगी बढ़ ही न पायी,
पर थोड़े में जीना, कम नही होता।
ज़िस्म जिसकी रूह से रूहानियत।
रूह को कुछ न समझना,कम नही होता।-
है कोई यहाँ,जो मेरी पहचान करा दे,
मैंने पहचान बनाई,निश्छल मन की,
मैंने पहचान बनाई सत्य निष्ठ की,
मैंने पहचान बनाई कर्तव्य निष्ठ की,
मैंने प्रेम को भी जीना चाहा,
मैंने धर्म को भी जीना चाहा,
मैंने कर्म को भी जीना चाहा,
पर मेरी पहचान पर ,
उनकी पहचान भारी पड़ गयी,
मेरी पहचान हारती गयी,
है कोई यहाँ जो मेरी पहचान दिला दे।
मैं इतना कठिन तप नही कर सकता,
मैं मानता हूँ कि मैं कायर हुँ,
मेरा स्वाभिमान मर चुका है,
मेरा इंसान मर चुका है।
मैं जिंदा करना चाहता उसे,
है कोई जो मेरी नयी पहचान करा दे।
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मेरी बहना!
हे बहना !मुझे वो दिन याद है,
जब बहुत दिन बाद,
चिलचिलाती धूप में,
तेरे घर गया,तेरे क्रोध से भरे बैन,
"का करै आये रहव,
यहव नाय देखेव कि,
हम जिन्दउ हन की नाय"।
से मैं सहम गया,
दर्द से भर गया।
पर तेरी नजरों,
ने मेरे दर्द को पहचाना,
और अब तू ख़ुद मिलने आ जाती है,
ख़ुद ही बात कर लेती है,
पर कभी शिक़ायत नही करती।।
मेरी बहन!अब तू बिल्कुल,
मेरी माँ की तरह लगती है।।
हे मेरी पावनता!
तू मेरे इस निःस्वार्थ प्रेम,
और ममत्व को सदैव,
प्रसन्न रखना।।-
उनका होना यूँ हुआ,कि मैं अकेला न हुआ।
उनका दर्द हर वक़्त साथ रहता है।।
किसने इतने दर्द उनकी झोली में दिए।
सज़दा करूँ उसे जो मेरा हक़ीम बनता है।।-
कुछ सोचकर ही ताल्लुक़ छोड़ दिया।
साख पर हरे पत्तों का आना अच्छा लगा।।-