उड़ जा तू खुले गगन में,आज तुझे रोका है कौन?
चलती जा तू अपनी मग में,आज तुझे टोका है कौन?
मुश्किलें तो आती ही है,निर्झरों के राह में भी,
लेकिन उनकी वेग को धीमा कर सका है कौन?
आज जिस समाज में तू,अपने वजूद को रोती है;
ना जाने कितनी बहुएं भूखे पेट ही सोती है,
ना जाने कितनी ही बच्ची मारी जाती गर्भ में ही;
तू भी तो जन्मा स्त्री से ही मान लो ये बात सही।।
उठो,जागो, चित्कार दो,सारे भयों को त्याग दो,
एक बार जो ठान लो,तो उसे करके दिखा।
फिर देखना अपनी किस्मत पर असल में रोता है कौन?
बेटी की,इस अनमोल रत्न को हिम्मत से खोता है कौन?
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