अब समझ आया माँ अपनी खाँसी हाथ से क्यूँ दबाती थी
अपनी बीमारी की बातें हमसे क्यूँ छिपाती थी
मन नहीं आज खाने का कह कर रसोई बन्द कर आती थी
रोटियाँ ख़त्म हो गयी ये कभी क्यूँ नहीं बताती थी
पंखे के नीचे हमें सुला के खुद क्यूँ कोने में सो जाती थी
अब समझ आया है माँ इतने झूठे बहाने क्यूँ बनाती थी
हर तकलीफ़ से दूर रहे उसके बच्चे, माँ ऐसा क्यूँ चाहती थी
अंतिम महीने में पाँच ही रुपए में सारे शौक पूरे करवाना चाहती थी
नहीं हो पाएँगी सारी ख़्वाहिशें पूरी, ये एहसास क्यूँ नहीं दिलाती थी
नयी साड़ी ना पहन कर, होली दिवाली उसी पुरानी साड़ी में बिताती थी
अब समझ आया दिवाली की पटाखों की ज़िद वो कैसे पूरी कर पाती थी
अब समझ आया,
माँ माँ क्यू कहलाती है
ग़म हो या ख़ुशी माँ हमेशा मुस्कराती है-
"Mind or Heart"
उसे जाने दो,
उसे सुकून मिल जाएगा,
मेरे आँसू बरसने वाले थे,
सबने कहा उसे जाने दो,
उसे सुकून मिल जाएगा।
वो बिस्तर सूना सा लग रहा था,
खालीपन का माहौल बना,
फिर भी ......
सब कहते रहे उसे जाने दो,
उसे सुकून मिल जाएगा।
रोशन उससे घर का आँगन था,
अंधियारे से भरा पड़ा है,
फिर भी......
सब कहते रहे उसे जाने दो,
उसे सुकून मिल जाएगा।
गुँजा करती थी उसकी आवाज़ जहाँ,
आज सन्नाटा सा घिर आया है,
फिर भी......
सब कहते रहे उसे जाने दो,
उसे सुकून मिल जाएगा
माँ,मौसी,बहन,दादी,पत्नी
हर रुप उसका बटोर ले गया,
वो सुकून उसका...
हर रिश्ते को अकेला कर गया.
आज.........
उसे सुकून मिल गया।-
पुराने अरमानों के स्वेटर से
नये ख्वाबों की लच्छी बनाईं है
फिर ज़िन्दगी बुन रहीं हुँ
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सुबह सुबह वो हमें घड़ी के
बजने के पहले उठाती है
रात को जब नींद ना आए
आज भी वो हमें सुलाती है
जब कमजोर हुए हम
उसकी ताकत हमें उठाती है
बुरी ना लगती है उसे कोई बात
ये बात उसकी समझ नहीं आती है
गलतियों को भूल हमारी
हरबार वो प्यार बरसाती है
कभी कभी अपनी बातों से
हमें खूब हँसाती है
पता है उसे हर बात हमारी
इसलिए माँ वो कहलाती है
हम उसकी छाया भर भी नहीं
सबसे अलग माँ हमारी है-
वो क्षण फिर एक बार दहला गया
गुजरा होगा दर्द वो कितनी अदालतों से
आज कोई फैसले का मलहम लगा गया
क्षण भर में बरबाद कर गये थे जो
उनकी पहचान में इतना वक्त लगा दिया
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सर्द मौसम में
कंबल के सुकून जैसी
गर्मी में बर्फ और
लस्सी के तरह कूल जैसी
कभी कभी गरजती हुई
कड़क बिजली की तरह
और कभी पूर्णिमा
में खिले फूल मून जैसी
माँ ही है
जो डराती भी है
सँभालती भी है
और आगे बढ़ना सिखाती भी है।-
कई दिनों बाद
कलम से रूबरू हुई है
वो छोटी लड़की
घर की
कैसे बदल गई है
बचपना उसका गुम
ना हो जाऐ
जीवन के नए
सफर में वो बदल ना जाए
संभल संभल के
चलना सीख रही
लड़खड़ा के भी
आगे बढ़ रही है
पुराने सपनों में
वो नए सपने बुन रही है
वो नयी बन रही है।
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कुछ इस तरह चल रही है ज़िंदगी
बस पास मार्क्स आ जाए
यहीं
ख़्वाहिश रह गई है-
सुनो आज ख़ामोश रहना तुम
बहुत बोलती हो तुम
कह कर मुझे टोकना मत
बहुत मुश्किल से
बाँधें हैं अपने शब्दों को
तुम अपनी मुस्कान से
इन्हें खोलना मत
थामें रखा है पानी
डबडबाती आँखों में
अपने इशारों से
इन्हें बहाना मत
आज मेरी सुनना तुम
हर बात
मेरे लबों को बंद
करना मत
सुनो ख़ामोश रहना तुम
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