खोज रहे हैं इस कलयुग में
आप जैसा कोई इंसान,
रावण तो है बहुत यहां
पर ना यहां है कोई राम ।
क्या क्या नहीं त्यागा राम ने
बनने को इंसान ,
यहां तो छीन कर दूसरों का
मानव समझता है खुद को भगवान।।
-
मेरी कुछ चीजें अब भी
तुम्हारे पास है जैसे कि वो खत
जो तुमने मेरे लिए लिखे थे
पढ़,उसे संभाल कर रखने मैंने
तुम्हें ही तो दिए थे।
क्या वो मुझे फिर से दे पाओगे?
मैं उन्हें फिर से पढ़ आंसुओं से
भीगाना चाहती हूं
सीने से लगा तुम्हारे पास
होने का एहसास पाना चाहती हूं
जो पड़ जाए उन पर फिर से सिलवटें
प्यार से सहला फिर से किताबों में
छिपाना चाहती हूं।
इक आखिरी बार!!-
अगर मैं तुमसे मिलने आ जाऊं
क्या तुम मुझे फिर से
मेरे आने की आहट से पहचान लोगे?
क्या मुझे देख फिर से अपनी
तरफ खींच सीने से लगा लोगे?
तुम्हारा हाथ पकड़ कुछ देर
रुक जाने कि ज़िद मैं फिर से करूंगी
क्या मेरा माथा चुम्म फिर से
तुम मेरी बात मान लोगे?
इक आखिरी बार!!-
हो कर मेरा ये दिल कितना बेईमान निकला,
सीने में है मेरे पर, इसपे तेरा नाम निकला।
ना यकीन हो तो मेरी इक बात रख लो,
गर मुनासिब समझो इक रोज़ को मेरा
ये दिल उधर रख लो ।।-
फूल सिर्फ मैंने नहीं तुमने भी तो सुखाए होंगे,
यादों की किताबों में बंद कर पन्नों से छिपाए होंगे,
कोई देख ना ले या कहीं गिर ना जाए,
हर बार उस किताब को खोलने से पहले
ये ख्याल तो आए होंगे?
और अब, बस आती है याद
फूल तो सूख गए,
पर सूखे हुए फूलों के अभी बाकी है निशान,
है ना ?
फूल सिर्फ मैंने नहीं तुमने भी तो सुखाए होंगे,
यादों की किताबों में बंद कर पन्नों से छिपाए होंगे।।
-
बस बारिश की बूंदे मैं बन जाऊं,
चाहूं तो सागर या नदियों में मिल जाऊं,
या फिर मिट्टी के घड़े में ठंडक पाऊं,
या फिर पेड़ के पत्तों से मैं टपक जाऊं,
बस बारिश की बूंदे मैं बन जाऊं।।
फिर मैं आसमान से धरती पर आऊं,
वाष्प बन वापस गगन में घुल जाऊं,
या फिर इन हवाओं में मिल जाऊं,
बस बारिश की बूंदे मैं बन जाऊं।।
जिस पात्र में रहुं उस आकार में ढल जाऊं,
किसानों के खुशियों का कारण कहलाऊं,
जगत में हरियाली मैं फैलाऊं,
बस बारिश की बूंदे मैं बन जाऊं।।
कभी मुस्कान के साथ आंखों में आऊं,
कभी मन हल्का कर गालों को भिगाऊ,
किसी के स्नेह भरे हाथों से मैं पूछ जाऊं,
बस बारिश की बूंदे मैं बन जाऊं।।
-
क्या लिखूं?
क्योंकि आज हु निशब्द मैं
या कागज छोड़ दू अब मैं कोरा
या खींच दू उल्टी सीधी रेखा।
क्योंकि आज हु निशब्द मैं
या उतार दूं इसमें चित्र मै
या समाज का चरित्र मैं
क्योंकि आज हु निशब्द मैं
या बनाकर कागज की नौका
उतार दू इनको पानी में
या बना पतंग उड़ा दू
नभ कि सवारी में
क्योंकि आज हु निशब्द मैं
या स्याही की बोतल खोल
सुखा दूं मैं यह रंग नीला ,
या दे दूं यह कलम किसी को
जिसने अभी अभी सीखा हो लिखना।
क्या लिखूं? क्योंकि आज हु निशब्द मैं।
-
पतझड़ के आने पर मायूस हुए पत्ते के जोड़े,
गिर जाएंगे अब हम डालो से,
बिछड़ने का वक्त आ गया है जो,
राह चलते उठा लिया राहगीर ने दोनों को
रख दिया किताबों के बीच हमेशा के लिए साथ।
कुछ इस तरह बयां करते हैं हम इसलिए पतझड़ को,
कि होने को है एक नई शुरुआत ।।
-
नया मुद्दा मिल जाता है लिखने को
जब कोई घटना हो जाती है घटित,
मीडिया को मिल जाती है ताजा खबर
और सोशल मीडिया हो जाता है गरम।
कब तक आखिर चलेगा ऐसा?
कब तक होंगी बस बातें और बहस?
इंसाफ की तारीख़ कब होगी निश्चित?
कब होगा खत्म सिर्फ़ वोट के लिए पीड़ित के घर का भ्रमण?
आखिर कब अपराधी को कुछ और नहीं सिर्फ अपराधी ही कहा जाएगा?
और कब होगा उनके बचाव में बोलना बन्द?
क्या सिर्फ बोलने के लिए आजादी मिल पाई है अभी तक?
(शायद वो भी नहीं)
क्योंकि हवाओं तक में घुल गई है यहां पर राजनीति की गन्ध।-