ऐ मालिक,
नियत ऐसी दे कि
खुली तिजोरी देख के भी ना बदले
शिफ़त ऐसी दे कि
गिर-गिर के भी सम्भल लें
बरकत ऐसी दे कि
कोई प्यासा न लौटे मेरे घर से
मुहब्बत ऐसी दे कि
कभी निराश न जाऊं तेरे दर से
यकीं इतना दे कि
हारते-हारते भी जीत जाऊं
जमीं इतना दे कि
हक से मैं खाऊं-खिलाऊं
हौसला इतना दे कि
ऊँचें आसमान में उड़ पाऊं
नरमी इतना दे कि
जहां के गम समेट पाऊं
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