Main kuch naa maangne, kuch na chahne ke liye hun raazi,
Par gum gaya jo kuch bhi tha mere saath kaise bhulaa dun!-
मुस्कुराहट के पीछे खुरचने हैं ग़म की, कभी फुरसत हो ज़िन्दगी से तो आकर देखना,
ज़रूरत सोहबत की कितनी है रूबरू, ये कभी मुझे गले लगाकर देखना !
रूह और जिस्म अक्सर साथ नही होते मेरे, ये जानना ज़रूरी है,
मैं बातें कितनी छुपाकर कर रखता हूँ, ये खामोशी मेरी पा कर देखना!-
मुस्कुराहट मेरी, मेरे जज़्बात जो तुम, चुरा कर के मुझसे ले गयी,
ना चाहिए सोहबत, ना चाहिए मरहम, उस दर्द का जो तुम दे गई,
तन्हाई मेरी मेरे पास तो है, अब चाहे मुझे तुम भुला दो,
मेरा दिल तुम वापस करो ना मुझे, पर मेरे वो पल तुम लौटा दो!
भुला हूँ, उन्हें यूँ, कि था ही नहीं...या था जो, वो मुझमें रहा ही नहीं,
जो था वो तो लिखता था, गाता था, चाहता था...उससे मैं कब से मिला ही नहीं,
मैं पत्थर होकर भी मैं गहरा हूँ, मैं रुकता नहीं, पर मैं ठहरा हूँ,
लेकिन मैं जो पहले था तुमसे, वो शख्सियत मुझे तुम लौटा दो!
मैं बदला नहीं शायद सब के लिए, पर वो भी नहीं जो कभी था,
मैं जीता था लम्हों को, जुड़ता था दिल से, मैं भागता यूँ डर से नहीं था,
क्यों अब रह ना पाता मैं, वैसा की जैसा तुम्हारे लिए मैं सही था,
जो वक़्त है वो मेरा तुम्हारे हवाले, उस वक़्त से मुझको मिलवा दो!
जो बातें, जो वादे, जो ढाल थी मेरी, उसकी एक कमी सी तो है,
पत्थर हूँ कि ग़म तो अब रहता नहीं, आंखों में नमी सी तो है,
कुछ खाली है, सूना है, फिर भी ये ज़िन्दगी काफी बची भी तो है,
वो पत्थर ना होना, वो हँसना, वो रोना, हो पाए तो मुझको लौटा दो!
-शिखर झा
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ना तुमसे, ना खुदा से, ना कायनात से खफा हूँ,
मैं बस आज अपने जज़्बात से खफा हूँ,
सच्चाई की क्यूँ है कमी सी इन हवाओं में,
चुभती हुई मन को मेरी हर बात से खफा हुँ,
सुकून दिल का छिनती क्यूँ महफिलें हैं ये,
सवालों से घिरती हुई हर रात से खफा हूँ,
हर चेहरे पर साज़िश की जैसे है निशानी सी,
छल से भरी आंखों की मुलाकात से खफा हूँ !
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जो ज़रूरत में याद करे उसको भी,
जो ज़िन्दगी आबाद करे उसको भी,
जो भागे हैं दिल तोड़कर उनको भी,
सुकून ग़म में देते जो उनको भी,
जो चंद पलों के साथी हो उनको भी,
जो दूर होकर भी प्यार करे उसको भी,
जो ना महफ़िल में याद करे उसको भी,
जो शामिल मुझको हर बार करें उनको भी...
Happy friendship day!!!
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दूर हूँ सबसे, क्योंकि मैं ऐसा हुँ
बातों का हूँ पक्का, ना भीड़ के जैसा हूँ,
किसी महफ़िल का हर पल मैं हिस्सा नहीं,
अकेला चलता हूँ, चाहे मैं जैसा हूँ!
पहचान मेरी कुछ खोकर के आयी है,
भीड़ का हिस्सा होकर इसे खोने से डरता हूँ,
अपनी चाहत और अपनी ताकत बचाकर,
अकेला चलता हूँ, चाहे मैं जैसा हूँ!
मेरी पसंद, हां मेरी पसंद है,
किसी सोहबत के लिए उसे बदलना नहीं,
चाहे भटका हुआ ही, क्यूं ना फिरूँ फिर,
पर मजबूरी में मुझे साथ, चलना नहीं!
दुनिया के खिलाफ ये कोई बगावत नहीं है,
बस बहाव में बहना मेरी आदत नहीं है,
रुक कर सोचता हूँ, कि क्या गलत और क्या सही है,
और चुनता हूँ बस वो, जो कुछ ही ज़रूरी है!
ज़रूरी वही है, सुकूं जो दिलाये,
ज़रूरी कोई शख्स है जो ये समझ जाए,
डर कर ना जीना है, चाहे कुछ छूट जाए,
खुद पर जो भरोसा है, बस वो न खो जाए!
तन्हाई मुझे गंवारा है, खुद को खोना नहीं
चाहे ना कोई सहारा हो, ग़ुम तो होना नहीं
इसलिए मन से खुदके, लड़कर भी में ऐसा हूँ,
अकेला चलता हूँ मैं, चाहे मैं जैसा हूँ!
-शिखर झा
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कुछ ऐसा ना कहूंगा,जो सच्चाई से परे एक दावा होगा...
बस कहूंगा इतना...जिन्होंने आज ठुकराया है,
"कल उन्हें ज़रूर पछतावा होगा"!-
जो आंसुओं को थामकर आंखें मेरी पत्थर हुईं,
जो खिलखिलाती सी ज़मीन दिल की मेरे बंजर हुई,
अब सोचता हूँ बैठकर मुझसे खता क्या हो गयी,
एक रोशनी पायी थी जो वो पाते ही क्यूं खो गयी!
मेरा तो मकसद था कि सच्चा ही रहूं मैं हर कदम,
कुछ अपनी खुशियां बांट लूं,कुछ अपने हक़ में लूं मैं ग़म,
दस्तक जो दी थी इक हंसी ने,क्यूं वो ओझल हो गयी,
एक रोशनी पायी थी जो वो पाते ही क्यूं खो गयी!
चलता था लेकर जिसकी संगत अपने ही मैं रूबरू,
जिसने पढ़ी थी मेरी आँखें,मैंने थी देखी जिसकी रूह,
उसके लिए फिर मेरी संगत क्यूं मुसीबत हो गयी,
एक रोशनी पायी थी जो वो पाते ही क्यूं खो गयी!
काबिल होने का जो यकीं मुझमें कहीं बढ़ता सा था,
बुझती लगी थी जब वो आग जिससे कहीं जलता सा था,
क्यूं छीनकर राहत मेरी ये ज़िन्दगी ग़ुम हो गयी,
एक रोशनी पायी थी जो,वो पाते ही क्यूं खो गयी!
-शिखर झा-
पास मंज़िल के खड़ा,फिर भी कितना दूर हूँ,
दहलीज़ पर खुशियों की मैं,कमज़ोरियों से भरपूर हूँ,
बेजान कंधों पर क्यूं मैं,रखता चला ये भार हूँ,
मुजरिम भी मैं,मज़लूम मैं...मैं अपना गुनहगार हूँ!-
अगर कभी नाराज़ हुँ,समझो तुम्हारेे पास हुँ...एक दिन सबको माफ कर दिया था जब,सबसे दूर हो गया था मैं!
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