हर ख़्वाब अधूरे रह जाते है
ज़िन्दगी की आज़माइशों में
हम रेज़ा-रेज़ा बिखरते जाते है...
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प्रकृति की हर रचना स्वयं में अद्भुत है,इसे और भी सुन्दर बनाने के लिये...
इसने स्त्री और पुरुष दोनों की रचना की,इन्होनें मिलकर समाज जैसी पवित्र संस्था बनाई...
जिसने दोनों के प्रेम,समर्पण और अधिकार की बराबर भागीदारी की जिम्मेदारी ली..मगर विडम्बना यह है कि...प्रेम,समर्पण,अधिकार के साक्ष्य इक- दूसरे से माँगे जाते है..अब पुरूष को अपना सामर्थ सिद्ध करने के लिये स्त्री का सहारा लेना पड़ता है...शर्म की बात यह नहीं की उन्हे स्त्री का सहारा लेना पड़ता है...
अफ़सोस यह है कि,जिसे वो अपने घर की इज़्जत कहते है,उन्हे ही सर-ए-बाज़ार स्तरहीन शब्दों का चयन कर निलाम कर रहे होते है...
सोचना इस बात पर है कि-क्या इससे पुरूष का पौरूष सिद्ध होता है या अपौरूषता.....
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कोई सम्बन्ध निभाना,जँहा एक कि जिम्मेंदारी बन जाती है
वँहा सम्बन्ध को दफ़न करना भी,उस इन्सान का फर्ज़ बन जाता है....-
क्या अच्छा फैसला है..
ख़ामोश हो जाना
ज़वाब" हाँ" में दिया मैंने
ऐसा नहीं कि ख़ामोशी से कई
बलायें टल जाती है
न ये कि,कमजोरी की निशानी
है ख़ामोशी..
बल्कि ये कि,कहने पर मिले हक़
तुम्हे,तो ऐसे शब्दों का क्या मूल्य
कि चीख कर तक़लीफ को हो बताना
तो ऐसे शब्दों का क्या अस्तित्व
'तुम हो अभी' शोर इस बात का मचाना पड़े
तो "हाँ" ख़ामोशी को चुनना
बेहतरीन फैसला है...
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जब घर में गूँज रही सिसकियाँ
किसी को सुनाई ना दे..
तो हक़ के लिये उठी आवाज़ पर
यकीनन,सबको बहरा हो जाना चाहिए...-
जब तक हमें,ये महसूस होता है कि
ज़िन्दगी मुहब्बत,ख़्याल,ख़ुलूस से नहीं
बल्कि पैसों से चलती है..
तब तक हमारी ज़िन्दगी का इक दौर
ख़त्म हो चुका होता है...-
कभी-कभी किसी बात का फ़र्क नहीं पड़ता
कभी, किसी बात का फ़र्क नहीं पड़ता
इस बात का भी फ़र्क पड़ता है....-
ऐसे भी मिलेंगे, कुछ लोग तुम्हें
जो रखते हैं
तुम्हारी नाकामयाबी का,तो तुम्हारी बढ़ती उम्र का हिसाब
नहीं रखेंगे तो
तुम्हारे संघर्षों का, तुम्हारी जागती रातों का हिसाब....-