ना जाने क्यों तेरा ख़्याल बार बार आता है, मैं ग़र तुझे भूलूँ तो हर ज़र्रा ज़र्रा तेरी याद दिलाता है और ये मुंतज़िर -ए- ग़म में कब तक रहूँ मैं कोई तुझे बताये की तू याद कितना आता हैं |
Aur ab th aisa lagta hain ke jese zindagi rooth gayi ho Koi keemti cheez piche chhut gayi ho Muddaton ho gay khush huye Lagta hain ab jese mujhe iski bhi adat ho gayi ho Aur jese parinde aasma mein udh kr bapas ghr na aaye Lgta hain meri muskurhat bhi kahi rah gayi ho Yun th bhulega na jamana tujhe kabhi ye hayat Lgta hai koi apna tujhe bhool gaya ho
अहसास ना हो तो इंसानियत भी ना होगी इंसानियत से बडी कोई इनायत ना होगी ना जाने क्यों लोग भूल बैठे है गलती उनकी दिखती नहीं तो उनकी सुनवाई ना होगी छुपाते हो तुम अपने गुनाहों को क्यों भूले हो क़ब्र मैं तुम्हारी रात ना होगी ना कोई तुम्हें वहाँ देखने वाला होगा ना कोई तुम्हारी तरफदारी करने वाला होगा होगा कुछ साथ ग़र तुम्हरे तो वो नेकियों का पल्ला होगा वक़्त अभी भी है संभल जाओ इस जहाँ मैं आख़री शाम तुम्हारी भी होगा