ᖘⱥnͥᖙeͣyͫ Cђiᖙⱥnⱥnᖙ   (पाण्डेय चिदानंद"चिद्रूप")
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मित्रता उससे करो, जो दुष्ट न हो।।
करो गागर में सागर, भरने की चेस्टा।
पर ध्यान रखो कि प्रकृति, रुष्ट न हो।।
खूब से ख़ूबतर की चाह करो हमेशा।
पर बनावटी ढांचे से असल, विपुष्ट न हो।।

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देख तेरा, चलना आसान है।
गिर के उठना और फिर, सम्भलना आसान है।।
हो ऊँची नीची पगडंडियाँ, या पथरीली राह हो।
हर राह हौसले से तेरा, तय करना आसान है।।

दूर हो मंज़िल भले, या हो परिस्थितियाँ विकट।
कटीले अवरोधों से कांटे, बुनना आसान है।।
आसान रास्ते सफलता के, पथ भुलवाएँगे सदा।
राह ज़िम्मेदारी से सटिक, चुनना आसान है।।

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जीत मुश्किल नहीं, जो ठान ताल ठोक लो।
उमड़े तुफानो को, बनकर शिखर रोक लो।।
लोहे सम लोहे को, निकल जाओ काट कर।
दृढ़ निश्चय के पावक में, खुद को झोंक लो।।

जीत जाना है सरल, है हार भी जाना सरल।
प्यार को जीत कर, है प्यार भी पाना सरल।।
फिर है मुश्किल भी क्या, जो यह पूछे कोई।
हो जाता है कठिन, खुद का हो जाना सरल।।

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भोले को गुन कर, भोले में गुम गए!
भोले को सुन कर, भोले में झूम गए!!
भोले को सोच कर, भोले में खो गए!
भोले को बोल कर, भोले के हो गए!!
भोले को जाँच कर, भोले को जँच गए!
भोले को बाँच कर, भोले में बस गए!!
भोले को निहार कर, भोले को भा गए!
भोले को प्यार कर, भोले को पा गए!!
भोले को देख कर, भोले को मान गए!
भोले को मान कर, भोले को जान गए!!
भोले को जान कर, भोले मन हो गए!
भोले को ध्यान कर,भोले हम हो गए!!

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कहीं बेरंग कहीं सबरंग, कहीं खुशरंग,
सजा अपना बनारस।
न जाने कित्ते किस्से, कितने हिस्से में,
रचा अपना बनारस।।
किसी के भाव मे तो, किसी के ताव में,
बसा अपना बनारस।
हर नीरस को देता रस, हरेक रस से,
कसा अपना बनारस।।

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