ᖘⱥnͥᖙeͣyͫ Cђiᖙⱥnⱥnᖙ   (पाण्डेय चिदानंद"चिद्रूप")
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Joined 21 September 2019


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Joined 21 September 2019

हिंदी दिवस...!
अब आओ हिन्दी दिवस मना लें हम सब पूरे जोर से।
जय हिन्दी जय हिन्दुस्तानी भर दो जहाँ इस शोर से।।
पर चिंतन भी करना कि कैसे इसका उत्थान करें।
बाकी वर्ष के अन्य दिनों जो रहती है कमजोर से।।
हिन्दी नही है माँगती तुम सब से अलग पहचान जी।
स्वर और व्यंजन के आगे हर भाषा लगे कमजोर से।।
डांट मीठी फटकार भी मीठी है अपनापन भी इसमें।
लगे लुभावन ये व्याकरण लुकछिप के चितचोर से।।
करने वाले गिटिर पिटिर क्यों इसकी करे अवहेलना।
क्यों हैं खड़े अंग्रेजी के जातक हिन्दी पर सरजोर से।।
भले प्रान्त हो अलग-अलग या विपरीत हो रहन सहन।
सजती हिन्दी इस हिन्द वतन के माथे बन पंखी मोर से।।
कर दो यह आह्वान जो सारे जग को सुनाई पड़ जाए।
हर एक भाव को व्यक्त करो अब बोलो तो शहजोर से।।
हिन्दी पुरानी भाषा है संस्कृति की पहली ये बिटिया।
कहते 'चिद्रूप' कर लो साधना इसकी तो पुरजोर से।।

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अब आओ हिन्दी दिवस मना लें...!

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रास्ता कहता है...!

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तल्खियां

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रोना न हमे आता...!

दम घुट रहा है कमरे, रोशनदान माँगती है।
फूलों से भरे गुच्छे, ओ गुलदान माँगती है।।
सीलन से बचने खातिर, कितने करें जुगाड़।
जख्म रिसते हुए मरहमी, सामान माँगती है।।
इस गम पे हँसू न तो, बताओ कि क्या करूं।
वफादारी करने का ये भी, एहसान माँगती है।।
रो-रो के मर भी जाता, अगर कीमती न होती।
कीमत में आँसू हमसे तो, यह जान माँगती है।।
हँसता हूँ अपने गम पे, तो ये लोग समझते।
रोना न हमे आता यह, अरमान माँगती है।।
है ज़िंदगी में दावत, गम के ही साथ मेरा।
यह दर्द भी तो 'चिद्रूप', इमकान माँगती है।।

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हाँ मैं भी कलाकार हुँ!

ज़िंदगी है रंगमंच, मैं उसका ही किरदार हूँ।
हाँ मैं भी कलाकार हुँ, हाँ मैं भी कलाकार हुँ।।

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ज़िम्मेदारी
हर कलम अपनी दास्तान, खुद ही जता देता है।
किसने क्या लिखा किस्सा, जमाना बता देता है।।

रखतें हैं शक्लों को क्यो, मासूम सा बनाकर।
ख्वाहिश सभी चेहरे का, मुखौटा हटा देता है।।

दीवानगी तो देखो इस, नामुराद खाकसार की।
अक्सर चाहतों में अपने, आसमाँ झुका देता है।।

एक उम्र छुड़ा देता है, डालों का फुदक लेना।
शाख ज़िम्मेदारी का, सबको ही बिठा देता है।।

क्यों बोझिल सी है आँखे, मायूस क्यों है चेहरा।
"चिद्रूप" क्या ज़िम्मेदारी, सबको थका देता है।।

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हिंग्लिश में कविता...!
(भोजपुरी)

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तेरे कंधे...!

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और है...!

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