वो आईना है मेरा अक्स मेरा उसमें ही, रूठ कर जाऊं कहां घर मेरा उसमें ही । सताता है मुझे मगर आंसू भी पोचता है, तड़पाता है तो क्या इश्क़ बेहिसाब करता है ।।
वो रसमलाई का दिवाना उसे बरफी नापसंद है, जज़्बात समझता है मगर इश्क़ नापसंद है। मैं जो हूं मुसाफ़िर उसे ठहराव पसंद है, मेरी आंखों में वो, उसे हर आंख पसंद है ।।
यादों का पिटारा खोल बैठा जाता हूं हर रात मैं, दिलासा दे के दिल को अब संभाल रहा खुद को मैं । कि लौट आना मुमकिन नहीं तो क्या, वो आँखें देख रहीं हैं आज भी मुझे । काबिल नहीं इतना कर्ज़ कैसे चुकाऊं उस पिता का मैं, राहत है कुछ अच्छा करूंगा एक दिन पर साथ नहीं वो आँखें अब। लौट आओ दिल कहता है, सब हो के भी सूना सा आज भी मैं ।।