शब्दों का रंगरेज़   (©शब्दों का रंगरेज़)
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Joined 26 April 2018


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कुछ उधारी सा बाकी हूँ सभी में मैं..
बचाना चाहूँ भी तो खाली हाथ रह जाता हूँ...
फिर चाहे वो...
"हिसाब हो, घर हो,दोस्त हों या फ़िर रिश्ते"

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Once zakir bhai said...

झूठे है वो लोग जो कहते हैं आदमी रो नही सकते...

"पूछने वाला होना चाहिए रे"।।।

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एक पन्ने पर उलझे से शब्द बिखरे हुए हैं...

बेतरतीब लिखावट... अधूरे लफ्ज़...

फिर दरवाज़े पर एक ज़ोर की दस्तक...

उन उलझे लफ्ज़ो से लिपटा हुआ सख्श...

अब पशो-पेश है दिल ओ ज़हन में...

शब्द पढ़ा जाए...या सख्श पढ़ा जाए।।।

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पुरूष...

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ये तो बस खिड़कियों को ही मालूम होता है... बारिशों के बाद चिडियों की चहचहाहट, एक भीगी हुई सड़क, कुछ एक भागती हुई जिंदगी...

और खिड़की के उस पार की आज़ाद दुनिया।।।

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पन्नो से लिपट कर "शब्द" कोई ना कोई किरदार गढ़ लेते हैं...

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हम लोगों को बस ज़रूरत है तो बस बातोँ के जादूगर की।।।

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एक गुल्लक क्या फूटी...तमाम यादेँ बिखर गयीं....

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युद्ध

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एक आईना हो तुम...
पर पारदर्शी नही...

कुछ छवियाँ जो तुम्हारे लिए दुनिया ने बना रखी हैं...
तुम बिल्कुल भी वैसे नही हो...

जो सोच तुम्हारे लिये दूसरे रखते हैं...
उस सोच के जिम्मेदार तुम नही हो।।।

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