इश्क़ की रिवायतों से हम तो ना अंजान थे
ये कौन से खंजर हैं जो बिन चुभे कतल कर गए?
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किसी दरिया में डूब कर तो फ़िर भी जी सकोगे
के उसके हिज्र की हवाओं में घुटन बहुत आम है
जो हो सके तो तिश्नगी की कब्र में दफन हो जाना
के उसके तकल्लुफ़-ए-दीदार की आस भी नाकाम है...!
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जिसका हर सवेरा एक नए धोके से रोशन हो
वो बदनसीब रातों से थमने की मिन्नतें क्यों न करे...!
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एक दरख़्त शकशियत् का बिखर जाना भी लाज़मी था
किन्हीं शोख़ हवाओं का पलट जाना भी लाज़मी था
वो जिसकी आरज़ू-ए-इश्क़ की चिंगारियाँ जलती रहीं
उसकी कब्र पे फूलों का मुरझाना भी लाज़मी था...!
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So you break you yourself and expect someone else to rejoin the pieces for you...?
That's exactly where you SHATTER...!
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पलकें भारी हैं मगर नींद का नामो-निशान नहीं
किसी ज़फा-ए-गम से जकड़ा हुआ वो यूँ ही तो परेशान नहीं...!
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तन की पीड़ा जो उठे वैद्य हक़ीम बुलाए
मन की पीड़ा चीर उठे तब किसे पुकारा जाए...!
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कर मोहब्बत तू मगर अंधेरों के साथ ही
इन बुझते उजालों में अक्सर छ्लावे बहुत आम हैं...!
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