अपने अकेलेपन से खुद ही लड़ा हूँ
शिखर पाने को संघर्ष पर्वत चढ़ा हूँ
माना भले ही आज अकेला खड़ा हूँ
पा कर रहूँगा; लक्ष्य के पीछे पड़ा हूँ-
बाहर से अब मौन हुआ हूँ, भीतर कैसा रण प्रति क्षण।
मुस्कान को दुनिया देखे, है भीतर भस्म बचा प्रति कण।
माना अपने अपने दुःख है, अपनी अपनी पीर कथा है
पर भूले क्यों जीवन जीना, माना अपनी अपनी व्यथा है।
हर कोई जब दौड़ में खोया, मैं भी भेड़ भांति चलता जाता,
भौतिकता के पाश में पड़ कर, बर्फ की भाँति गलता जाता ।
मैं भी सब से कहाँ अलग हूँ? है क्या जो मैंने अब तक पाया,
बस खुशियों की अभिलाषा, पर ढलती जाती नश्वर काया।
धधक रहा है अंतस में जो, ज्वाला उसकी रोक न पाऊँ ,
राख हो रहा कुछ अंदर, किस विधि शीतलता को पाऊँ।
गोचर नही मार्ग क्यों मेरा? क्यों घोर अंधेरा घिरता जाता?
है धूमिल लक्ष्य मेरा अब, अल्हड़ सा बन फिरता जाता।
हे विंध्यवासिनी! हे शक्तिस्वरूपा! साधक को मार्ग दिखाओ,
हे जगतजननी! अरदास हूँ करता, होने का मेरे; हेतु बताओ।।-
पतंग सा कभी उड़ लिया, पतंग सा कभी कट गये।
धार थी अपनी मांझे की, आंधी में पर चटक गये।
चले थे चूम कर राह को, किस कारण अटक गये ?
कैसी ये घड़ी आ गयी ? कैसे लक्ष्य से भटक गये ?
बढ़ाया हाथ मांगा जिसने भी, बदले में बस गम मिला।
खुश नही हुवे अपने कभी, खुश करते करते थक गये।
बेचा अब तक फूल जो, बदले में मुझें बस गम मिला।
काँटो से भरा दामन मिला, दर्द संग हम रातों जग गये।
बीमारी का न पता चला, कई हकीम आये भग गये।
नींद भी गहरी आती नही, अपने ही मुझें जब ठग गये।
अनुबंध तोड़ जो विदा हुआ, कंधा देने को कई लग गये।
बड़ी देर से कफ़न लाये तुम, हम तो कब के ही दग गये।-
दर्द
***
हो गयी है दर्द से, मेरी दोस्ती जब से,
इस दर्द से अब कोई, दर्द नही मिलता ।
अधूरी सी कुछ, लगती जिंदगी ये अब,
दर्द से जब कोई, नया दर्द नही मिलता ।
दर्द देती थी चोटें, अब है मरहम सी,
बिना दर्द अब, हमदम नही मिलता ।
है चाह गर तेरी, अमरता को पाना,
बिन दर्द के, अमरत्व नही मिलता ।
मिटे ये दर्द पुराना,नया चाहिए मुझकों
दर्द ही न हो जो, हमदर्द नही मिलता ।
गर चाह जीवन में, मलय वात शीतलता,
बिन ग्रीष्म के, कभी सर्द नही मिलता।
गर है चमक पाना, दर्द-ए-तपिश मांग ले,
बिन भानू किरणों के कमल नही खिलता।
सह ले दर्द का झरना, घट जाने दे घटनाएं,
बिन घटनाओं के, कोई फर्द नही मिलता।
अधूरी सी कुछ, लगती जिंदगी ये अब,
दर्द से जब कोई, नया दर्द नही मिलता ।।-
बेचैन सा है कुछ मुझमें, अंगीठी सा कुछ जल रहा है
न जाने किस तपिश में, अंदर का मैं भी गल रहा है
सुकून की तलाश मुझकों, न दिखता मुझकों सबेरा
भाग जाऊं कहाँ मैं अब, बताओ कहाँ उसका बसेरा
रिश्तों को अब तौलने की, जैसे आंधी सी चल रही है
तिल तिल कुछ जल रहा है, चिंगारी सी कही पल रही है
ढूंढा कई शिवालयों में, मस्जिदों पर हाजिरी लगायी
हे ईश्वर, अल्लाह, नानक, यीशू, मैं दे रहा हूँ अब दुहाई
शून्य कर दो काया मेरी, या तुम पालक का प्यार दे दो
तिमिर मुझमे नाश करके, मुझकों मेरा अधिकार दे दो
त्रुटि भी मुझसे हो रही है, जब इंसान का है जन्म मेरा
या तो मुझकों सवारों, या दो बस मुझकों मरण मेरा
रातों की तपिश भारी, दिन का चैन भी बड़बड़ाता
अकेलापन न भाए, कानों में बस फुसफुसाता
लक्ष्य मेरा धुंधला है क्यों, तीर लक्ष्य से भटक रहे है
प्रत्यंचा खुद कैसे चढ़ाऊँ, बाण भी जब चटक रहे है
विचार रूपी बवंडर में, है बस तिनके सा वजूद मेरा
कुछ तो दे दो मुझे भी, कुछ तो हो जो सबूत मेरा।।-
बारिश की बूंदों सी तुम,
मैं हृदय मरुस्थल हूँ।
तुम हो मिट्टी की सौंधी खुशबू,
मैं तो जैसे दलदल हूँ।
तुम सरिता की निर्झर धारा,
मैं तो जैसे खारा सागर हूँ।
तुम तो स्वयं ही पूर्ण हो,
मैं तो तुझको पाकर हूँ।-
मेरे जहां भी मित्र है
धरा के सुंदर चित्र है
प्रभाव जिनका इत्र है
श्रीकृष्ण सम चरित्र है
हृदयप्रिय सदा रहो
निर्झर सा सदा रहो
स्वास्थ्य समृद्धि मिले
अवनि पर जहां रहो।-
आहों का जोर😭😭😭😭😭
पलट रही हस्ती मुनादी की शोर है
अर्श से फर्श तक पतली सी डोर है
सहम रहें सपनों में अब कई चोर है
असल मे शोषित आहों का जोर है
कभी खून के आँसू रुलाया था जिसने
दुल्हन को विधवा बुलाया था जिसने
कई बेटों को मौत से सुलाया था जिसने
रहने को न ठिकाना न अब कोई ठौर है
असल मे शोषित आहों का जोर है
खुद को विधाता बनाया था जिसने
मौतों पर खुशियां मनाया था जिसने
खुद को ही अकेले गिनाया था जिसने
खोजे न मिलता अब वह किसी ओर है
असल मे शोषित आहों का जोर है
खून से रंगीन रातें होती थी जिनकी
पीड़ितों पर संगीन होती थी जिनकी
धाराएं कई तरमीम होती थी जिनकी
अब नाच रहें ऐसे; जैसे कोई मोर है।।
असल मे शोषित आहों का जोर है।।-
गम का समंदर है, काँटो की छांव है
अधर मौन है, जब अपनो के घाव है
दिल मे दहक है, रक्त रंजित पांव है
अब व्यवहार नही, चौसर के दाव है
थपेड़ों से लड़ रही, जीवन की नाव है
बस भाए अकेलापन, कैसे ये भाव है
सच में क्या यही, समय का बहाव है
या प्रारंभ हुआ, जीवन मे ठहराव है।-
जो है मुझसे शिकायत तो इतना जान लो
रहे न अब हमारे तुम भी इतना मान लो
गर रही न सोच भली मेरे लिए भीतर तुम्हारे
हक नही तुमकों भी मुझसे तुम सम्मान लो।
माना ना मरोगे तुम कभी छोड़ कर मुझकों
माना ना मिलेगा दर्द तुम्हें तोड़ कर मुझकों
सीख लिया रहना मैंने भी जिंदा बिन तुम्हारे
असम्भव है नही कुछ भी गर होना ठान लो।
कहते हो जरूरत अब नही तुमको हमारी
समझ लिया मैंने भी अब फ़ितरत तुम्हारी
दिया हक का अपने तुमकों अपना मान कर
दिखूंगा अब नही पहले जैसा कि पहचान लो।
कहा था तुमनें मिलेंगें कई मेरे जैसे तुमकों
समर्पित मुझ जैसा ही मिलेगा कैसे तुमकों
जर्रा जर्रा भले ही दुनिया का तुम छान लो
करोगें याद बस मुझकों ही इतना जान लो।-