"There's always light after the dark."
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वो मायूसी के लम्हों में ज़रा भी हौसला देते,,
तो हम कागज़ की कश्ती पे समंदर में उतर जाते...!!-
तअल्लुक़ात की क़ीमत चुकाता रहता हूँ,
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ.!!
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है,
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ.!!
ये और बात कि तन्हाइयों में रोता हूँ,
मगर मैं बच्चों को अपने हँसाता रहता हूँ.!!
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की,
मैं दुश्मनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ.!!
ये रोज़-रोज़ की अहबाब से मुलाक़ातें,
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ.!!
हसीब सोज़-
दुआ करो कि ये पौदा सदा हरा ही लगे
उदासियों में भी चेहरा खिला खिला ही लगे
वो सादगी न करे कुछ भी तो अदा ही लगे
वो भोल-पन है कि बेबाकी भी हया ही लगे
ये ज़ाफ़रानी पुलओवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही
ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे
अजीब शख़्स है नाराज़ हो के हँसता है
मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो ख़फ़ा ही लगे
हसीं तो और हैं लेकिन कोई कहाँ तुझ सा
जो दिल जलाए बहुत फिर भी दिलरुबा ही लगे
हज़ारों भेस में फिरते हैं राम और रहीम
कोई ज़रूरी नहीं है भला भला ही लगे
-बशीर बद्र-
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक्ल तो दिखा गया
वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गईं वो सोहबतें
ज़मीं निगल गई उन्हें कि आसमान खा गया
ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आइने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया
ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ समा गया
गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अलम-कशो उठो कि आफ़्ताब सर पे आ गया !
-नासिर काज़मी-
वो जिंदा था तो अकेला सा रहता था,
ये मौत पर भीड़ कैसी, ये झूठे आंसू किस लिए?-
“अकेले रहो। इससे तुम्हें सोचने, सत्य की खोज करने का समय मिलता है। पवित्र जिज्ञासा रखो। अपने जीवन को जीने लायक बनाओ।”
- अल्बर्ट आइंस्टीन-
तुम कहीं से भी फिसलते तो संभाल लेते तुम्हे,
तुमने नज़रों से गिरना चुना तो हम क्या करें !!-