Shashikant Joshi   (ⓢⓟⓙ)
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ⓢⓟⓙ
Joined 20 October 2017


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Joined 20 October 2017
9 JUN AT 23:31

सब का सब के बिना काम चल ही जाता है,
आप भ्रम में हैं की आप खा़स है!!!

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9 JUN AT 0:05

घडी उतार कर रख दी है हमने,
वक्त सबकी औकात बता रहा है.. !

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26 MAY AT 23:50

जिसका ये ऐलान है कि वो मज़े में है,
या तो वो फ़कीर है या फिर नशे में है !

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16 APR AT 23:47

"There's always light after the dark."

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4 APR AT 5:11

कूदना पड़ा मुझे समुन्दर में,
मैं अपनी ही नाव में बोझ बन चुका था !

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22 MAR AT 16:47

वो मायूसी के लम्हों में ज़रा भी हौसला देते,,
तो हम कागज़ की कश्ती पे समंदर में उतर जाते...!!

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18 MAR AT 7:27

कमी तुम्हारी तो है ही नहीं,
बात ये है की वक्त हमारा नहीं है !

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17 MAR AT 16:28

तअल्लुक़ात की क़ीमत चुकाता रहता हूँ,
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ.!!

मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है,
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ.!!

ये और बात कि तन्हाइयों में रोता हूँ,
मगर मैं बच्चों को अपने हँसाता रहता हूँ.!!

तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की,
मैं दुश्मनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ.!!

ये रोज़-रोज़ की अहबाब से मुलाक़ातें,
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ.!!
हसीब सोज़

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14 MAR AT 22:27

दुआ करो कि ये पौदा सदा हरा ही लगे
उदासियों में भी चेहरा खिला खिला ही लगे

वो सादगी न करे कुछ भी तो अदा ही लगे
वो भोल-पन है कि बेबाकी भी हया ही लगे

ये ज़ाफ़रानी पुलओवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे

नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही
ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे

अजीब शख़्स है नाराज़ हो के हँसता है
मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो ख़फ़ा ही लगे

हसीं तो और हैं लेकिन कोई कहाँ तुझ सा
जो दिल जलाए बहुत फिर भी दिलरुबा ही लगे

हज़ारों भेस में फिरते हैं राम और रहीम
कोई ज़रूरी नहीं है भला भला ही लगे
-बशीर बद्र

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14 MAR AT 8:48

दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक्ल तो दिखा गया

वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया

जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया

पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गईं वो सोहबतें
ज़मीं निगल गई उन्हें कि आसमान खा गया

ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आइने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया

ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ समा गया

गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अलम-कशो उठो कि आफ़्ताब सर पे आ गया !
-नासिर काज़मी

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