गणतंत्र, गणमान्य लोगों का तंत्र बनकर रह गया है... रोटी, कपड़ा और मकान नामक रोग से ग्रसित बाहुल्य जनता की आँखें पढ़कर आ रहा हूँ... वो दिन और थे जब देश को दिशा देने वाले लोग भूखी-नंगी जनता को देख कर साप्ताहिक उपवास और लँगोट धारण कर लेते थे... तब आँखों में हया थी, बेहयाई नहीं।
बयाँ आँखों से होते हैं, मंज़र हैं जो अंदर के। वही ग़म आये हिस्से में, जो आये थे सिकंदर के।। तमाशा खूब है कि वक़्त के साहिल पे डूबे हैं। सफ़ीने वो जो सीना चीर देते थे समंदर के।।