चलते फिरते हम समझ न पाते
यूं बदरंगी पल कहा ले जा रही
हम मुसाफिर अपनी ही दुनिया में कैद
सपनों की लड़ियों को जोड़ते
दुखों की छाया में उलझे
सुनहरे पल की चाहत में
न जिंदगी में चैन न उमंग
सफर की डोर थामे
तरंगों के बीच
सौ करवटे लेती जिंदगी
धारियों में बिखरी सी पड़ी है।
खुद को ढूढता
खुद से दूर हो गया हूं
डगर के मोड़ तीखे
हम बदनसीब थे
सफर के छोर न दिखे
अब कहां है जिंदगी
जो फूलों की सेज
बिछा कर रखा हूं
क्या रूठी है जिंदगी
नहीं पता !
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जीवन सूर्योदय एवं सूर्यास्त के बीच की यात्रा भर न होकर अंधेरी एवं चांदनी रात्रि का प्रतिबिंब है यह एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है समय का साथ इसे निरंतर गति प्रदान करता है प्रकृति अपनी जीवंतता को बनाए रखने में जीवन की धुरी को थामे रखती है पंच तत्वों के मिश्रण से उद्भिद प्रत्येक भौतिक काया एक निश्चित समय सीमा में बंध कर अपने-अपने कालखंड के गीत गढ़ते हैं !
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तुम कहो तो कहते हैं की कहते रहो
हम कहें तो कहते हो की कम कहो
कहना कहलाना कहते रहना
अब कहा से कहे की कहते रहें...!
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आ! ले चलु सूरज की गोद में
पगडंडी के सहारे
सोने की खोज में
मेढ़ो के बंध
घांस की ओढ़ में
फसलों पर अमृत की बूंद
बुनती जीवन की डोर में
आ! ले चलु तुझे सूरज की गोद में
क्षितिज धुंधला
मानो बहती बहार
मद्धम–मद्धम चलत
लगे सावन की फुहार
ओ मानुस जरा देख
झरती है जीवन
उस अनंत गगन से
आ! ले चलु सूरज की गोद में
बहुरंगी–अतरंगी सभी हैं
इसी की खोज में
संध्या की बेला
मानो अवसर की डोर है
पंक्षियों का सरगम
अब विदा ले रहे
क्षितिज की छाव में
आ! ले चलु तुझे सूरज की गोद में ।।
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तू भूकर में चलता
तू तपिश में ढलता
नाज़ुक घड़ी को
अपना समझता।
घिरा था आंधियों में
सुराग बनकर
रेत की धुरी में फिसलता
खुद से पूछता।
तू रुका नहीं
तू थमा नहीं
मंथन का दौर
फिर झुका नहीं।
ध्यान योग
तप सुविचार
तब लगा सवेरा
खोज नई।
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खूबसूरती गुलाब में है
कांटों में क्या रखा है
नशा शराब में है
लिबाज में क्या रखा है !-
उड़ते हुए पंक्षियो से पूछो जमी की हसरत क्या होती है
कोई ज़मीं पर रह कर आसमा को निहारता रहा!-
कोई बसंत कहता है
कोई पतझड़ समझता है
मगर आंसू की हर एक बूंद को
सागर समझता है।
वो अंगारों के शोलो पर
थिरकते क्यों मचलते हैं
हम ही को आजमाते हैं
इशारे दूर करते हैं।
मुकम्मल है जमी अबसे
जो ख्वाबों में मचलता है
सुनो हे मीत अब जो प्रीत के
दामन पकड़ता है।
संभल कर चल कहीं तू
फूट के यूं रो नहीं देना
नशा ये भांग से भी खूब
चढ़ता फिर उतरता है।
नया क्या है पुराना क्या?
जमाने भर का अफसाना
कभी वो साथ है अपने
छड़ में दूर हो जाना।
सितारे देखते हैं मीच के
नजारे चांद की शोहरत
अकेला डूब कर भी
रोशनी से प्रीत कर बैठा।
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'आजादी किसी को थाली में परोस के नहीं मिलती'
इंकलाब जिंदाबाद🇮🇳
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गूंज रही है काफिर घाटी
गूंज रही है आजादी
गूंज रहे हैं चीख पुकार
खून से माटी सानी।
हमको ही धुत्तकार दिया
अपने घर के चौखट से
डर से सहमे बिलख रहे
मटको में संघ अस्थि के।
नरसंहार का चोला ओढ़े
अलगाववाद बेखौफ चले
कश्मीर बना दी नरक जिन्होंने
आतंक बिखेरे घाटी में
बच्चों को काटत पाट दिया
मर्दों के सिर में गोली मारी
वृद्धों की तो गिनती छोड़ो
दरिंदगी, उस ओर खाई
मानवता को रौंद दिए वो
जिश्मो के बाजार उतारे
आगे और न कह पाऊंगा
शर्मशार हैं शब्द हमारे।
इंसाफ मांगते पंडित भाई
जिनका कोई दोष नहीं
दूर-दूर तक घना अंधेरा
अब जस्टिस की बारी आई।
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