फिर क्या हुआ जो हमनें मंदिर बना लिया
कल हम ही कह रहे थे कि घट-घट में राम हैं-
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"आप... read more
मुल्ला हुआ हैरान मंदिर को देखकर
पंडित ही कह रहा था कि कण-कण में राम हैं-
हमनें भरी जवानी क्या कुछ नहीं सहा
होठों पे तबस्सुम की जगह बद-दुआ रहीं-
कभी-कभी मैं सोचता हूँ
कैसे लिखते हैं वें?
उनके हैं लाखों चाहने वाले
शब्दों को बिन जांचे परखे
अपशब्दों की भाषा में
अशिष्टता के लहजे में
कविता जानकर
जो रचते हैं अपना अहंकार
और परोसते हैं ज़हर,
नयी नस्लों को
और वे कवि,वे शायर
जो कहते हैं गहरी बातें
जो जीवित रखना चाहते हैं
भाषाओं की मर्यादा
और देना चाहते हैं
समाज को एक दिशा
वे किसी घर के,किसी कमरे में
सैकड़ों किताबों के बीच
गढ़ते हैं और कृति
किन्तु मिलते नहीं उनके जैसे
लाखो श्रोता
लाखो पाठक-
क्या मसाइल हैं हमारे, क्या बतलाए
दैर-ओ-हरम के झगड़े सारे, क्या बतलाए
चक्कर काटे दफ़्तर दफ़्तर बूढ़ा बाबा
काग़ज़ में हैं चाँद सितारे, क्या बतलाए
राजा करता मन की बातें बड़ी बड़ी
जनता फिरती मारे मारे, क्या बतलाए
दिन भर खूं का प्यासा घूमें इक दानव
मत्था टेके सांझ सकारे, क्या बतलाए
मंचो पर चिल्ला चिल्ला कर नेताजी
इसका जूता उसको मारे, क्या बतलाए
रोज़ नोचता माली जब जब फूलों को
बागो की ये चीख पुकारें, क्या बतलाए
"सत्य" हमेशा मौन खड़ा हैं मुस्काता
वक्त ज़रा आने दो प्यारे, क्या बतलाए-
सब कुछ गंवा के पास तेरे आया हूँ आज मैं
कोई जिस्मों जां नहीं, फ़क़त साया हूँ आज मैं-
ख़्वाब को आग लगा दी गई
खुद को तबाह कर लिया गया
खेल बस खत्म हो गया,यानी
उसको बाहों मे भर लिया गया-
स्त्री की अस्मिता दो कौड़ी
स्त्री की गरिमा दो कौड़ी
बस महिमा मंडन मंचो पर
स्त्री की उपमा दो कौड़ी
यहां पुत्र पिता के नाम का हो
जननी शक्ति है दो कौड़ी
तुम मूर्त रूप भले पूजो
जीवित स्त्री हैं दो कौड़ी
पश्चिमी वेष में बलात्कार??
चलो पहन भी ले गर वो साड़ी
हो भी जो डुपट्टा ऊपर तक
आँखे फिर भी तुमने गाड़ी
तुम मांग भरो, उपवास रखो
हे स्त्री! तुम आज्ञाकारी
तुम ढोते आयी हो संस्कृति
यह संस्कृति हैं दो कौड़ी-
वेदना के बाण भीतर ही को सह जाता हूँ मैं
शोर कोई क्यूँ करूं चुपचाप ढह जाता हूँ मैं
हूँ जो मैं अंतर्मुखी यह दोष है या गुण कहूँ
मध्य मित्रों के भी एकाकी ही रह जाता हूँ मैं-
मैं मसर्रत में जीयूं या के दर्द में डूबू
कोई तो मर्ज़ हो, कौन मर्ज़ में डूबू-