ख़ूब इश्क़ किया..भरपूर इश्क़ किया..।
मैंने बेजान से दिल को बोलने का जरिया अंदर दिया।।
जो भी थे सुहाने थे दिन मौसम-ए-बहार के..।
मैंने इश्क़ किया इज़हार किया..उन्हें इल्तिफ़ात इस क़दर दिया।।
कुबूल कि ,उन्होंने शर्मा कर मेरी चाहत को..।
मैंने ख़्वाबों को खेलने बिन कश्ती नया-नया समंदर दिया।।
यूँ ही रूठा यार... मुझसे मेरा ऐसे की...।
मैंने ख़ुद को बेबस किया.. एक दर्द को ख़ुद में दर दिया।।
ए इश्क़ हम भी छुपछुप कर रोए हैं तन्हाई में..।
शिकवा किसे करूँ.. मैंने ही मेरी जिंदगी को रोता मुकद्दर दिया।।
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