पा लेना
और खो देना
कोई बहुत बड़ी बात नहीं होती।
बात है तो,-
अंत हो जाए...
या तो मेरे विचलित मन का,
या फिर... मेरा ही।
हर रोज़ की ये उथल-पुथल,
हर लम्हा जो खुद से दूर करता है,
अब या तो सुकून आ जाए,
या फिर सब कुछ... शून्य हो जाए।
थक चुका हूँ खुद से लड़ते-लड़ते,
अब या तो चैन मिल जाए,
या फिर ये बेचैन दिल... हमेशा के लिए थम जाए।-
कुछ चीज़ें छोटी लगती हैं,
पर उनके मायने बेहद गहरे होते हैं।
'चाहत' और 'राहत' में फ़र्क होता है...
चाहना दिल से होता है,
और राहत बस वक़्त बिताने के लिए।
'ज़रूरी' और 'ज़रूरत' में भी फ़र्क है...
ज़रूरी हो जाना मतलब किसी की रूह में बस जाना,
और ज़रूरत बनना... बस वक़्त के साथ बदल जाना।
मैं तो हमेशा यही समझता रहा
कि मैं तुम्हारी 'चाहत' हूँ,
पर शायद... मैं सिर्फ़ 'राहत' ही था।
कभी-कभी हम किसी के लिए बस 'ज़रूरत' होते हैं,
'ज़रूरी' नहीं...-
किसी शायर ने कहा था...
"जो अर्थ न समझे,
उन पर कभी अपने शब्द व्यर्थ न करें..."
पर भला मैं कैसे समझाऊँ उन्हें?
ये इश्क़ की महफ़िल है,
जहाँ दो और दो चार नहीं,
बस एक होते हैं।
हम तो बस खुद को लुटाना जानते हैं उन पर,
क्योंकि हमने उन्हें खुदा माना है अपना।
और भला ख़ुदा से कैसी रुसवाई?-
ना जाने क्यों…
अब यकीन नहीं होता कि
जिन्दगी में कभी मुझे भी
प्यार या इज़्ज़त नसीब होगी।-
आज आँखों से सब कुछ साफ़ दिख रहा है...
जो कहना था, वो तो कह नहीं पाया...
और जो सहना था, वो सब सह लिया।
आज दिल हल्का है,
क्योंकि आज जी भर के रो लिए हम।
शायद यही सुकून होता है —
जब दर्द भी थक कर चुप हो जाए।-
कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे घुटन सी हो रही हो...
जैसे तिरस्कार का घूँट पीकर बस जीते जा रहे हों।
जब कुछ कहने को हो पर कोई सुनने वाला ना हो,
या कह ही ना सको—तो वो चुप्पी भी एक चीख बन जाती है।
ऐसा नहीं कि कोई अपना नहीं है,
अपने हैं... कुछ अपने तो ज़रूर हैं,
पर ना जाने क्यों दिल की बात दिल में ही रह जाती है।
जुबां तक आते-आते रुक जाती है।
और फिर बस...
कोरे कागज़ पर आँसू बहते हैं,
कुछ दर्द लफ्ज़ों की शक्ल में बिखर जाते हैं।
शायद यही मेरी आवाज़ है,
और शायद... यही मेरा सुकून भी।-
उदासी जब छाती है,
तो हर तरफ़ से छा जाती है,
मन पूरा व्यथित हो जाता है,
और "कुछ नहीं" पर ही अटक जाता है।
खिड़की से झाँकता चाँद भी चुप है,
हवा भी बिना सुर के बह रही है,
शब्द होठों तक आते हैं,
पर मौन के पर्दे में सिमट जाते हैं।
दिल के किसी कोने में अनंत सिसकी दबी है,
जो निकलना चाहती है—पर डरती है,
कि कहीं ये दुनिया उसे
कुछ कह न दे।
बस यूँ ही हर रात बीत जाती है,
उदासी के विस्तार में
कोई किनारा नहीं मिलता।-