आज फिर वैसी ही शाम ,जैसी कल आई थी,
जैसी कल आएगी, जैसी रोज आएगी...
पर क्या मैं कुछ मूल्यवान कर रहा हूं?
क्यूंकि ये समय की रेत अब होले होले,
मेरी मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
यह स्वर्णिम अवसर फिर न निकल जाए,
अब फिर असफल न हो जाऊं,
यह चिंता मुझे खाए जाती है,
कहीं फिर व्यर्थ न कर दूं,
इस अनमोल व अद्भुत जीवन को,
होना चहता हूं बहती नदी,
तो कभी होना चहता हूं शांत विशाल वृक्ष,
उड़ना चाहता हूं चरेरू संग,
और मीन संग तैरना भी चहता हूं,
होना चाहता हूं राख,
और बिखर जाना चाहता हूं संपूर्ण अस्तित्व में,
विरही बन रोना चाहता हूं,
प्रेयसी संग प्रेम सागर में डूबना भी चाहता हूं,
पुष्प बन शिव चरणों में अर्पित होना चाहता हूं,
त्रिशूल बन दुष्टों का नाश करना चाहता हूं,
कभी होना चाहता हूं विशाल बरगद,
तो कभी छोटा सा पौधा होना चाहता हूं,
सब कुछ होना चाहता हूं मैं,
अस्तित्व में मिल जाना चाहता हूं मैं,— % &-
मैं ये देह नहीं,
ये मस्तिस्क नहीं,
ये चंचल मन नहीं,
मैं तो आत्मा हूँ...
मैं अचल और अछूत हूँ,
मैं ब्रह्म हूँ...
न ही अवगुण और न ही सद्गुण,
मैं तो निर्गुण हूँ,
मैं आकार रहित निराकार हूँ,
न तो मैं दुःख हु,और न ही सुख,
मैं तो परम शांति हूँ,
मैं शून्य हूँ...
मेरा कोई नाम नहीं,
मैं तो अशब्द हूँ...
-
वो कल तेरा अकस्मात मेरे सामने आ जाना,
तपते मरुस्थल में भटकते राही को अमृत मिल जाने के समान था,
उस अपूर्व घटना को शब्दों में बयां करना असंभव है प्रिये,
वो तेरी प्यारी मुस्कुराहट और भी अधिक प्यारी हो गई है,
सोचा था अब कभी तेरा मेरा मिलन सम्भव न होगा,
किंतु तूने फिर से पाषाण में जान फूंक दी,
जब एक मिथ्या जगत से दूसरे मिथ्या जगत में प्रवेश किया,
तो मैं निशब्द सा,शांत सा बस एकटक आसमान को देखता रहा,
कि कदाचित फिर कोई संदेशा आए...
-
ये झूठा उल्लास किस प्रयोजन से,
ये व्यापार का खेल किस लिए,
कहीं दीपावली के लिए तो नहीं,
गर हां, तो ये झूठा नाटक क्यों,
क्या तुम्हारे भीतर कोई क्रांति घटी,
क्या तुम्हारे भीतर राम उतरे या बुद्ध,महावीर उतरे,
गर ऐसा नहीं है तो ये दिवाली झूठी है,
मात्र बाहरी चकाचौंध है,
भीतर राम को उतारो,
चखो उत्तम शराब परमात्मा की,
तो मात्र एक दिन नहीं अपितु हर दिन दिवाली होगी,
झूठी नहीं शाश्वत होगी...-
तुम्हें पुकारूं या नियति के प्रपंच का इंतजार करूं,
यदा कदा लगता है कि कहीं नियति से विलम्ब न हो जाए,
पर फिर से तेरे प्रेम में पराजित होने के भय से ठहर जाता हूं,
मैं तो बड़े ही असमंजस में पड़ गया हूं,
क्या तू भी इस चक्रव्यूह में तो नहीं फंस गई,
गर हां तो,ये मिलन सम्भव होगा???
किन्तु एक आस अभी मेरे हिज्र के अटारे में शेष है,
कि वो संगम होगा अवश्य...
-
प्रेमाश्रुओं की धारा बहाना चाहता हूं,
किंतु वो महाप्रलय सकुचा कर ठहर गई,
पागल होना चाहता हूं तेरे प्रेम में,
न जाने वो जादू कहीं खो सा गया,
होना चाहता हूं पहले जैसा,
न जाने क्या पीछे छोड़ आया हूं,
डूबना चाहता हूं तेरी गहराइयों में,
न जाने अब क्यों अब जा नहीं पाता,
चाहता हूं कि कुछ न चाहूं,
न जाने क्यों कोई चाह सूची में रह ही जाती है,
होना चाहता हूं तेरे करीब, तेरे निकट, रे मेरे इश्क,
न जाने कैसे तुझसे और दूर होता चला जा रहा हूं,
-
कुछ लिखा नहीं है कबसे,
ये पूछा है मैंने आज खुदसे,
खाली हो गई है शब्दों की गठरी,
या खाली हो गया हूं मैं,
कोई टीस उठी नहीं क्या हृदय में जबसे,
या कोई प्रेमरस पीया नहीं जबसे,
सो कुछ लिखा नहीं है जबसे,
ऐसी क्या व्यस्तता रही होगी,
जो खुद की ही राह ढूंढी नहीं होगी,
क्या छिपाते हो,
कह नहीं सकते या कहते नहीं बनता,
हां,अज्ञेय को जानने निकले थे,
क्या हुआ???
-
पता नहीं कहां को, पर मैं चल पड़ा,
कदाचित आज भीतर की फुसफुसाहट सुनाई दे ही गई होगी,
कदाचित आज नौका मिल ही गई होगी,
सबकुछ स्वतः ही घट रहा था,
और मैं सबकुछ से अनिभिज्ञ,अबोध सा,
बस साक्षी बना सब देख रहा था,
ये क्या हो रहा था,ये तो मुझे भी ज्ञात न था,
किन्तु जो भी घट रहा था,
वो सब आश्चर्यजनक और अभूतपूर्व था,
ऐसा आभास हो रहा था कि मैं किसी,
दूसरे ही लोक में था,
और वह लोक, मृत्यु लोक से कहीं अधिक शांत और सुखदायक था,
और वह लोक कहीं और नहीं,
अपितु मेरी ही गहराईयों में कहीं था,
और मैं बावला अनिभिज्ञ था आजतक,
इस सुन्दर जगत से...
-
ऐसे क्या देखती हो,
अपनी बड़ी बड़ी प्यारभरी आंखों से,
कुछ ऐसे प्रश्न हर रोज पूछा करता हूं,
पास ही के खूंटे से बंधी बछिया से,
दूध सी सफेद,वह छोटी सी काया,
बड़ी खूब जचती है उसपर,
लगता है कि पूर्व जन्म में जरूर,
कोई विश्वसुंदरी रही होगी,
अपनी मूक भाषा में न जाने,
क्या कहती रहती है,
कदाचित जरूर इस बंधन, इस खूंटे से,
मुक्ति के लिए गुहार लगाती होगी,
और जब उसकी मां सामने आए तब देखो,
कैसे सिर पर पैर रखकर उसकी ओर दौड़ी चली जाती है,
बड़ा प्यारा है न यह वृतांत,
क्यूं है न...-
कल की ही बात लगती है न,
कि जब मैं प्रौढ़ नहीं हुआ था,अप्रौढ़ था,
अनजान था जब मैं इन सांसारिक रोगों से,
तब सब कितना अच्छा लगता था न,
न कोई भेद - भाव आता,
और न ही कोई चालाकियां आती थीं,
वो भोलापन,वो टोली संग खेलना,
सब कितना प्यारा था न,
किन्तु जैसे जैसे मैं प्रौढ़ होता गया,
धीरे धीरे इन सांसारिक बीमारियों से,
मैं भी ग्रसित हो गया,
चालाकी,लालच,छल,काम,वासना,ईर्ष्या,
जैसे रोग मुझे उपहारस्वरूप मिले इस समाज के द्वारा,
वो भोलापन,वो मासूमियत अब नहीं झलकती,
इस चेहरे से,
क्या ऐसी होती है प्रौढ़ावस्था???-