आज फिर वैसी ही शाम ,जैसी कल आई थी,
जैसी कल आएगी, जैसी रोज आएगी...
पर क्या मैं कुछ मूल्यवान कर रहा हूं?
क्यूंकि ये समय की रेत अब होले होले,
मेरी मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
यह स्वर्णिम अवसर फिर न निकल जाए,
अब फिर असफल न हो जाऊं,
यह चिंता मुझे खाए जाती है,
कहीं फिर व्यर्थ न कर दूं,
इस अनमोल व अद्भुत जीवन को,
होना चहता हूं बहती नदी,
तो कभी होना चहता हूं शांत विशाल वृक्ष,
उड़ना चाहता हूं चरेरू संग,
और मीन संग तैरना भी चहता हूं,
होना चाहता हूं राख,
और बिखर जाना चाहता हूं संपूर्ण अस्तित्व में,
विरही बन रोना चाहता हूं,
प्रेयसी संग प्रेम सागर में डूबना भी चाहता हूं,
पुष्प बन शिव चरणों में अर्पित होना चाहता हूं,
त्रिशूल बन दुष्टों का नाश करना चाहता हूं,
कभी होना चाहता हूं विशाल बरगद,
तो कभी छोटा सा पौधा होना चाहता हूं,
सब कुछ होना चाहता हूं मैं,
अस्तित्व में मिल जाना चाहता हूं मैं,— % &
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