Shailendra Singh Thakur   (✍️शैलेन्द्र 'बिंदास')
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फ़क़त अल्फ़ाज़ की कारीगरी है शाइरी कैसी
अगर ज़ख़्मी लबों से मुस्कुराना ही नहीं आया
Joined 19 May 2021


फ़क़त अल्फ़ाज़ की कारीगरी है शाइरी कैसी
अगर ज़ख़्मी लबों से मुस्कुराना ही नहीं आया
Joined 19 May 2021
22 APR AT 13:46

किसी के ग़म को जब अपना बना नहीं पाया
बहुत उदास रहा मुस्कुरा नहीं पाया

क़ुबूल मेरी इबादत ख़ुदा करे कैसे
अगर मैं रोते हुए को हँसा नहीं पाया

अमीर ऊब रहा है महल में रहकर भी
ग़रीब एक अदद घर बना नहीं पाया

वो झूठ बोल के भी सुर्ख़ियों में रहता है
मैं सच के साथ ख़बर में भी आ नहीं पाया

क़रीब आपको मैंने किया है जब महसूस
तब आस-पास कोई दूसरा नहीं पाया

अब एतिबार किसी पर रहा नहीं मुझको
सो हाल-ए-दिल भी किसी को सुना नहीं पाया

फ़िराक़ वस्ल ख़ुशी ग़म वफ़ा जफ़ा 'बिंदास'
सुख़न-वरी में बता तूने क्या नहीं पाया

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17 APR AT 18:07

इक ख़्वाब भी हयात में पूरा नहीं हुआ
जैसा रखा था सोच के वैसा नहीं हुआ

किससे करें शिकायतें किसको बुरा कहें
ता-उम्र काम हमसे भी अच्छा नहीं हुआ

रिश्ते बना के देख लिए हमने सब मगर
माँ-बेटे जैसा दुनिया में रिश्ता नहीं हुआ

माता-पिता का मान बढ़ाती हैं बेटियाँ
क्यों सोचते हैं लोग कि बेटा नहीं हुआ

आम आदमी से झुक के हमेशा मिले मगर
दरबारियों के सामने सज्दा नहीं हुआ

लहजा रहा है तल्ख़ हमारा तमाम उम्र
कड़वाहटें थीं इतनी कि मीठा नहीं हुआ

'बिंदास' बन के लोग ख़रीदार आये थे
हमसे मगर ज़मीर का सौदा नहीं हुआ

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12 APR AT 19:09

ये रूह का है जो रिश्ता अजीब होता है
हो दूर कितना भी लेकिन क़रीब होता है

जो अपने प्यार से हो जाता है ज़ुदा यारो
मेरी तरह ही कोई बद-नसीब होता है

वो शख़्स जिसने गँवा दी हो प्यार की दौलत
अमीर हो के भी कितना ग़रीब होता है

मरज़ पकड़ ले नमी देखकर जो आँखों की
मेरी नज़र में वो अच्छा तबीब होता है

फ़रेब करते हुए देखा है उसे अक्सर
जो ज़िन्दगी में ज़ियादा क़रीब होता है

नज़र से उसकी बुरा कोई बच नहीं सकता
गुनाह देखने वाला हसीब होता है

हर आप-बीती हो 'बिंदास' की ज़रूरी नहीं
शरीक सब के ग़मों में अदीब होता है

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वो दिल में जब आती है कभी याद की सूरत
खंडर भी नज़र आता है आबाद की सूरत

इन सूखे हुए फूलों का तब रूतबा अलग था
जो दफ़्न किताबों में हैं अब खाद की सूरत

जो आज करोगे वो बुढ़ापे में मिलेगा
ये नेकियाँ ही मिलती हैं औलाद की सूरत

नस-नस में मेरी दौड़ रहा है लहू उनका
किरदार में मेरे दिखे अज्दाद की सूरत

उड़ते हैं परिंदों की तरह ज़िन्दगी भर हम
फिर मौत जकड़ लेती है सय्याद की सूरत

हर बार सबक़ ग़लतियों से लेता हूँ अपनी
सब ग़ज़लें पुरानी हैं इक उस्ताद की सूरत

'बिंदास' ने कह ली हो अगर ठीक ग़ज़ल तो
फिर हौसला अफ़ज़ाई भी हो दाद की सूरत

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वाजिब जो ए'तिराज़ है अब होना चाहिए
लेकिन जताने का भी अदब होना चाहिए

आवाम के लिए हर इक आज़ाद मुल्क में
जो जो ज़रूरी होता है सब होना चाहिए

इंसाफ़ कोई खेल नहीं है कि कर दिया
अच्छे बुरे की जाँच हो तब होना चाहिए

दुश्मन हो या कि लोहा हो दोनों पड़ेंगे नर्म
बस वार का पता हो कि कब होना चाहिए

बन्दूक या क़लम हो ख़तरनाक दोनों हैं
सो कैसे कब चलाएँ ये ढब होना चाहिए

हम लोग पीटते हैं फ़क़त साँप की लकीर
या'नी कि होता कुछ नहीं जब होना चाहिए

'बिंदास' मिल तो जाता है जो चाहिए मगर
ख़ुद पर यक़ीन दिल में तलब होना चाहिए

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खिलौनों की जगह बच्चे अगर कचरा उठाते हैं
तो फिर किन का भला करने का हम बीड़ा उठाते हैं

अगर दो वक़्त की रोटी हुक़ूमत की है गारंटी
फिर अपना पेट भरने लोग क्यों जूठा उठाते हैं

हुआ जो देश में सबसे बड़ा अब तक का घोटाला
चलो उस चंदे के धंधे से अब पर्दा उठाते हैं

उसूल इसको समझिए या हमारी बुज़दिली कहिए
वो जब बंदूक उठाते हैं तो हम चरखा उठाते हैं

मुहब्बत की इमारत तो गिरे अरसा हुआ लेकिन
अभी भी शाइरी में उसका हम मलबा उठाते हैं

घर इनके बाद में कोई उजाड़े पहले ये देखे
परिंदे कैसे चुन-चुनकर इक-इक तिनका उठाते हैं

कोई क़ीमत नहीं दुनिया में गर ख़ुद्दार लोगों की
तो फिर 'बिंदास' हम भी आज से कासा उठाते हैं

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किसी का दिल भी दुखे तो मलाल हो जाए
अगर हो ऐसा कभी तो कमाल हो जाए

दिखेगी अच्छी भली शक्ल भी तुम्हें तिरछी
गर आइने में ज़रा सा भी बाल हो जाए

लगा दो रंग उसे होली में ख़फ़ा है जो
उमीद है कि शुरू बोलचाल हो जाए

उसे भी तुझसे मुहब्बत है तू समझ जाना
हया से चहरा अगर उसका लाल हो जाए

फ़िज़ा भी इतनी है रंगीन अब के फागुन की
हवा भी छू ले अगर तो गुलाल हो जाए

हम अपने दरमियाँ पालें न नफ़रतें इतनीं
कि साँस लेना भी सबका मुहाल हो जाए

कोई भी मस'अला 'बिंदास' कैसे सुलझेगा
हर इक जवाब अगर इक सवाल हो जाए

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21 MAR AT 23:03

आप अगर करते हैं इज़्ज़त तो हर औरत की हो
सिर्फ़ माँ बीवी बहन बेटी नहीं कोई हो

इतना काफ़ी है ग़ज़ल इश्क़ की कहने के लिए
हाथ में हाथ है तुम पास मेरे बैठी हो

तुम अगर वाह भी कह दो तो मुक़म्मल हो शे'र
और अगर साथ मेरा दो तो ग़ज़ल पूरी हो

मुझको दो बेटियाँ दीं रब ने ये रहमत उसकी
घर लगे सूना वो जिसमें न कोई बेटी हो

क्या भला उसका बिगाड़ेगा कोई भी जिसके
हर क़दम साथ सदा माँ की दुआ चलती हो

बे-समर भी हैं अगर पेड़ तो साया देंगे
अहमियत घर में कभी कम न बुज़ुर्गों की हो

ये नसीहत है बुज़ुर्गों की हमारे 'बिंदास'
कुछ शिकस्ता भी हो दस्तार मगर अपनी हो

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18 MAR AT 22:08

ज़िन्दगी से उदास आ जाएँ
ग़म-ज़दा मेरे पास आ जाएँ

जान जाएँगे आप ग़म मेरा
आप हैं ग़म-शनास आ जाएँ

इन्तिज़ार आपका ही रहता है
लोग कितने भी ख़ास आ जाएँ

दिल मेरा क्यों मचलने लगता है
वो अगर आस-पास आ जाएँ

उनको पहचान लूँगा ख़ुश्बू से
गो बदलकर लिबास आ जाएँ

इक भँवर है मेरी ग़ज़ल 'बिंदास'
गर बुझाना है प्यास आ जाएँ

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14 MAR AT 14:51

कसमें कभी हम आपकी झूठी नहीं खाते
और आप हैं जो हम पे तरस भी नहीं खाते

कमज़ोर नहीं होता कभी कोई भी दुश्मन
जो जानते हैं इतना वो मुँह की नहीं खाते

हम शान से लाते हैं बड़े मॉल की बासी
पर ताज़ा रखी ठेले की सब्ज़ी नहीं खाते

रुकने लगी है इसलिए धड़कन भी अचानक
हम डालडा खाने लगे हैं घी नहीं खाते

कारण है बढ़ी तोंद जवानी में थकन का
हम ज्वार सँवा बाजरा कुटकी नहीं खाते

भर जाता है ये पेट मगर मन नहीं भरता
जब तक कि बनी माँ तेरी रोटी नहीं खाते

अच्छे बुरे की जिनको समझ होती है 'बिंदास'
वो आँखों से देखी हुई मक्खी नहीं खाते

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