कोई दाना कोई नादान ठहरा
है ये तो लाज़िमी इंसान ठहरा
महक का फूल से रिश्ता है कब तक
पता है उस को वो गुल-दान ठहरा
मुझे ढूँढ़ो किसी मुफ़्लिस के घर में
वहीं तो हूँ मैं हिंदुस्तान ठहरा
कोई भी झाँक लेगा राह चलते
मैं कच्चे घर का रौशनदान ठहरा
नहीं छोड़ा बदन पर पैरहन तक
बड़ा बे-रहम ये शमशान ठहरा
ख़ुदा है वो कोई इंसाँ नहीं है
उसे पाना बड़ा आसान ठहरा
तू गीता रख या फिर क़ुरआन रख ले
मेरा क्या है मैं बस जुज़्दान ठहरा
न कर 'बिंदास' दुनिया की तू बातें
मैं दुनिया-दारी से अनजान ठहरा-
अगर ज़ख़्मी लबों से मुस्कुराना ही नहीं आया
दौलत की हवस भी किसी पिंजरे की तरह है
क़ैद इस में हर इंसान परिंदे की तरह है
हर ईद दिवाली पे गले मिलते थे तब लोग
पर मुल्क में अब सब कहाँ पहले की तरह है
जलते हुए सहरा में भी मिलती है घनी छाँव
माँ-बाप का होना किसी साये की तरह है
खिलता है अगर फूल बिना तेरी हँसी के
वो फूल भी मेरे लिए काँटे की तरह है
मैं तुझ से बहुत दूर हूँ तू मुझ से बहुत दूर
अब साथ हमारा किसी सपने की तरह है
कुछ देर ठहर कर चले जाते हैं मुसाफ़िर
ये दुनिया भी इक रैन-बसेरे की तरह है
तूने भी मेरा तोड़ दिया फिर से भरोसा
या'नी कि तू भी यार ज़माने की तरह है
समझौता करे अपने उसूलों से जो 'बिंदास'
बस कहने को ज़िंदा है वो मुर्दे की तरह है-
जलते हुए सहरा में भी मिलती है घनी छाँव
माँ-बाप का होना किसी साये की तरह है-
गर मुझ को बुरा सारे ज़माने में कहोगे
तो बोलो कमी कौन से शजरे में कहोगे
वो साथ रहे जिसके तुम इक उम्र लिव-इन में
सोचा है कभी क्या उसे रिश्ते में कहोगे
सच कहने की आदत तो बहुत अच्छी है लेकिन
नुक़्सान उठाओगे जो धंधे में कहोगे
चुपचाप थे जब आया था सय्याद मगर अब
आज़ाद करो हम को ये पिंजरे में कहोगे
तुम होश में बोलोगे हमेशा की तरह झूठ
हाँ बात मगर सच है जो नश्शे में कहोगे
मुमकिन है कि बन जाओगे फिर उनके मसीहा
जब तुम भी किसी क़ौम को ख़तरे में कहोगे
क्या ख़ाक असर आएगा 'बिंदास' ग़ज़ल में
जब शे'र अँधेरे पर उजाले में कहोगे-
उस को दुनिया ने समझदार समझ रक्खा है
जिस ने जूती को भी दस्तार समझ रक्खा है
छोड़ कर पहले वही भागेगा मैदान-ए-जंग
वो जिसे आपने सरदार समझ रक्खा है
काम आएगा वही शख़्स किसी दिन तेरे
जिस को तूने अभी बेकार समझ रक्खा है
इक हवेली से चले आये हैं दो कमरों में
फिर भी क्यों ख़ुद को ज़मींदार समझ रक्खा है
ऐब ही ऐब नज़र आते हैं तुझको सब में
तूने क्या सबको गुनहगार समझ रक्खा है
दिन क़यामत का क़रीब आ ही गया है शायद
भाई ने भाई को दीवार समझ रक्खा है
वो तेरी मौत पे आएँगे तमाशा करने
तूने 'बिंदास' जिन्हें यार समझ रक्खा है-
सदा दूर से जो चली आ रही है
वो तेरी है या फिर मेरी आ रही है
वो मेरे लिए रो रहा है तभी तो
हवाओं में इतनी नमी आ रही है
वही ख़ुश नहीं इससे जो कह रहे थे
कि इक्कीसवी अब सदी आ रही है
अगर प्यास है तो है उम्मीद भी ये
अभी आगे कोई नदी आ रही है
चकाचौंध से अब मैं उकता गया हूँ
पसंद आज फिर सादगी आ रही है
उधर से ही अब कोई रस्ता मिलेगा
जिधर से भी ये रौशनी आ रही है
"वो शिद्दत नहीं है अभी शाइरी में
ख़यालों में शायद कमी आ रही है
ग़ज़ल कह रहा हूँ या तुकबंदी 'बिंदास'
मुझे आज ख़ुद पर हँसी आ रही है"-
वो जिसकी याद में ये आँख नम है
उसी ने भूलने की दी कसम है
भुलाता हूँ उसे जैसे ही दिल से
तो होती साँसों की रफ़्तार कम है
तुझे पूजा इबादत की है तेरी
तू मेरे वास्ते दैर-ओ-हरम है
ख़ुशी क्या होगी इससे बढ़के यारो
कि उसके आने तक तो दम में दम है
पुकारा जब भी मैंने ज़िंदगी को
क़ज़ा भी साथ आई क्या सितम है
मुझे तौफ़ीक़ दी जो शाइरी की
ख़ुदा 'बिंदास' पर तेरा करम है-
चराग़ जलता रहा रात भर हवेली का
मज़ाक़ उड़ाता रहा इक ग़रीब बस्ती का
उलझती जाती है मज़बूर ज़िन्दगी कैसे
समझ न आए तो फिर जाल देख मकड़ी का
दरख़्त कटने का होता न रास्ता कोई
जो लकड़ी साथ न देती कभी कुल्हाड़ी का
उरूज पर ही पहुँचकर ज़वाल आता है
नशा उतरता है पहले कहाँ बुलंदी का
तमाशबीन हैं हम आते जाते रहते हैं
तमाशा ख़त्म नहीं होता पर मदारी का
घुमाती रहती है ऐसे तू रात-दिन मुझको
कि जैसे मैं भी हूँ कंगन तेरी कलाई का
न इसमें ग़म है न डर है न फ़िक्र है कोई
मज़ा न पूछ तू 'बिंदास' इस फ़क़ीरी का-
वीरान अपने आप ये चम्बल नहीं हुआ
होगा कोई तो मस'अला जो हल नहीं हुआ
आईं थीं आज़माने मुझे मुश्किलें मगर
सोना पिघल के आग में पीतल नहीं हुआ
नक़्स आ ही जाता है कहीं किरदार में नज़र
पैवन्द टाट का कभी मख़मल नहीं हुआ
सूरत भले हो कैसी भी सीरत तो अच्छी हो
बदनाम अपने रंग से काजल नहीं हुआ
मिलती हर एक फ़न में महारत मुझे मगर
मुझसे ही कोई काम मुसलसल नहीं हुआ
शायद नहीं थी तुझसे महब्बत कभी मुझे
होकर ज़ुदा तभी तो मैं पागल नहीं हुआ
हर आदमी में होती है थोड़ी बहुत कमी
दुनिया में कोई शख़्स मुकम्मल नहीं हुआ
पाले हैं आस्तीन में 'बिंदास' कितने साँप
लेकिन मैं आज तक कभी संदल नहीं हुआ-
किसी के ग़म को जब अपना बना नहीं पाया
बहुत उदास रहा मुस्कुरा नहीं पाया
क़ुबूल मेरी इबादत ख़ुदा करे कैसे
अगर मैं रोते हुए को हँसा नहीं पाया
अमीर ऊब रहा है महल में रहकर भी
ग़रीब एक अदद घर बना नहीं पाया
वो झूठ बोल के भी सुर्ख़ियों में रहता है
मैं सच के साथ ख़बर में भी आ नहीं पाया
क़रीब आपको मैंने किया है जब महसूस
तब आस-पास कोई दूसरा नहीं पाया
अब एतिबार किसी पर रहा नहीं मुझको
सो हाल-ए-दिल भी किसी को सुना नहीं पाया
फ़िराक़ वस्ल ख़ुशी ग़म वफ़ा जफ़ा 'बिंदास'
सुख़न-वरी में बता तूने क्या नहीं पाया-