साख्यूं बटि जम्यूं हयूं
जम्यूं हयूं कब गाळा लो..
यो हिमालय अपणी पिडा
कब ब्वाळ लो..-
सोचणा बी कथगै तरीका छन
क्वी मोर्द-मोर्द बी
अपणी 'सोच' छोड़ जांद
क्वी स्वचदै-स्वचदा मोर जांद।-
हक़ की आवाजें सरकारें इस तरह कुचल देती हैं।
जैसे रोडवेज़ की बसें गिलहरियाँ कुचल देती हैं।
दिन भर बैठा है बंदा टीवी के डब्बे के आगे,
समाचार वालों की भों भों उसका नज़रिया कुचल देती हैं।
मैं ये कहना चाहता हूँ इन बिखरी हुई भेड़ों से,
भेड़ें एक हो जायें तो गडरिया कुचल देती हैं।
राहगीर-
कभी होली त कभी बग्वाली छे वा
बुरांश सी स्वाँणी लेकिन कंडाली छे वा ।
रुड्यों का घाम मा सौंण सी बरखा
उदास मन की कुतग्याली छे वा।
बर्फीला डांडा जन रूप च वींकू
भादौं का मैना की हरियाली छे वा ।
बडाँग दिलों की आग बुझोंदी
प्रेम की डाली झपन्याली छे वा ।
बौल्या होणू छों, देखी व्हीं तैं
मैंक तैं सुरा की, प्याली छे वा।
बुरांश सी स्वाँणी
लेकिन कंडाली छे वा।-
जनम भूमि सोचिकी बड़ाई कना छाँ।
दिन रात जिन्दगी से लड़ाई कना छाँ।
माटि बिटि ढुंगो की छड़ाई कना छाँ।
हड़गा तोड़ि-तोड़ि की कमाई कना छाँ।
मारिक मन, मन की बुथाई कना छाँ।
दिन रात जिन्दगी से लड़ाई कना छाँ।-
नहीं... नहीं...
मुझे इल्ज़ाम न दो
मैं कहाँ टूटता हूँ आदमी पर
आदमी
टूट रहा है मुझ पर।-
लाज़मी है मेरे कल
का बोझिल होना
सब कुछ कल
पर जो टॉल रखा है मैने ।-
त्यारा बाना छोड़ी मिन घर गौं
कांडों की बाड़ चौ-दिशों अब कख जौं
रैगे तू सौंजडया तौं डांड्यों पोर
तिन नि पछ्याणी मेरी माया घनघोर
अब नि रयेंदु त्वे बिना सचि त्यारे सौं
कांडों की बाड़ चौ-दिशों अब कख जौं
केकु लगे होलु नखरु यु माया कु रोग
तनी मेरी बाळी माया उनी मेरु जोग
जिकुड़ी मा छंप्यू रालु सदानी तेरु नौ
कांडों की बाड़ चौ-दिशों अब कख जौं
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वो चेहरा, जिसे देखा था ख्वाबों में
न जाने क्यों अपना सा लगता है।-