"चालीस की उम्र में बीस वाले जज्बात"
इक अजीब सी बेचैनी में है वो
हकीकत और ख्वाइशों के बीच जूझती
कभी सुकून के कुछ पल तो कभी हैरानी में डूबी शामें
कशमकश कशमकश जैसे है सब बस है नही वो अब।
जानें क्यों लगता है उसको गुजर गया दौर मगर बाकी है
थोड़ा बहुत अब तक,आकाशवाणी सी गुंजती रहती है।
सोचती है अजीब है ये चालीस का चक्कर
रह भी लेती है, रहा भी नहीं जाता, समझ भी लेती है
दायरे सारे फिर क्यों है भला बाकी बीस वाले जज्बात।
मन में पलने वाली इच्छा, आधे अधूरे ख्वाहिशें
और कुछ चंद जिद्दी हौसले लिए सोचती
मुकम्मल साल अभी भी है बाकी इस जिंदगानी के।
अजब छलावा है ख़ुद से, जी भी लेती है छोटी छोटी बातों में, यादों में
और उसके होने के बीन बेड़ियों सपनों में।
मगर जब नींद नहीं आती, सुकून मिलता नहीं, कहा भी नहीं जाता
रहा भी नहीं जाता, कभी जज़्बा तो कभी जुनून नहीं मिलता,
उस पर "mood swings" भूख की तरह जीवन का एक नियमित हिस्सा हो जाता,
तब बूझ जाती है वो की कि है ये संघर्ष चालीस वाली अल्हड़ बीस अब नहीं आने वाली,
है ये संगिनी आजीवन मन ही मन अब बस कलम और कविता वाली..।।
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