बहुत खुश होकर एक रोज़ खफा हो जाऊंगा
ज़माने से मैं भी जाना ऐसे बेवफ़ा हो जाऊंगा
दौर ए सितम कर ले अभी ए ज़िंदगी तू भी यार
मत रोना के इक रोज़ मिट्टी का गजा हो जाउंगा
मेरे आसूं रफ्ता रफ्ता इतना तो भीगा ही रही है
यानी के न बदलने वाली कभी कबा हो जाऊंगा
ज़ेहन आबाद अब कहां होती हैं लोगो के यारों
नाम ओ नसब से फलां बिन फलां हो जाऊंगा
ख़ुद को करके पोशीदा रब के दयार में प्यारे
न हो रहबर कभी रौशन ऐसी शमा हो जाउंगा-
❤️25th November❤️I m student of B.tech{1sem} narasraopeta college of en... read more
बच्चा जब बिलखता है मां सीने से लगा लेती है
परिंदे दाने लाके बच्चों को खिला देती है
जमीं को जब ठंड लगती है पेड़ अपने पत्तों से उसे छिपा लेती है
सूरज जब गुस्सा हो जाता है
आकर बादल गले लगा लेती है
चांद को तन्हाई सताती है तब तारे
झुरमुट बनाए हुए आते हैं
दिन को जब डर सताता है
रात उसे अपने गिरफ्त में ले लेती है
सुबह जब युवा होता है तो दोपहर देता है ताकि संघर्ष तीव्र हो
प्रेम भी उन्हीं सब का पर्याय है
कोई बिलखे किसी को तन्हाई सताएं
किसी को डर लगे कोई तड़पे किसी का संघर्ष किसी बिना शोभा न लगे
तब उसे चाहिए की वो अपने प्रेम के निकट प्रेम से जा पहुंचे यही संसार का नियम है।
अंतः लौटना ज़रूरी है।
रहबर-
जन्म के बाद से ही जैसे बड़ो को करते देखा
ठीक वैसे ही करने की कोशिश करने लगा
शायरी में जैसे पहली पंक्ति से दूसरी पंक्ति के
वाक्यों के अंतिम शब्दों को मिलाने लगा
तब ये एहसास कर पाया के ज़िंदगी शायरी
हो गई-
न बिछड़ना हो कभी ऐसी मुलाकात चाहता हूं
तेरे साथ मैं बसाना एक कायनात चाहता हूं-
हर मसअले का हल निकाला गया है
रात के कोख से कल निकाला गया है
हर किसी के जाने का वक्त मुकर्रर है
मिट्टी से दबा महल निकाला गया है
समंदर सा गहरा राज़ है मुझ में यारों
अभी कतरा भर जल निकाला गया है
दर्द ज़ख्म आंसू सबको समेटे हुए मैं
दिल के थैले से ग़ज़ल निकाला गया है
लौट आओ ए हयात की मल्लिका फिर
बंजर ज़मीं से भी फ़सल निकाला गया है
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गम ए दिल का शिकवा न शिकायत है किसी से
मेरे मुस्तकबिल का वो यारो इमामत है किसी से
मैं जानता तो हूं तेरे साथ मुक्कदर तो नहीं है मेरा
तू वादा कर हमेशा मेरी है भले फरागत है किसी से
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उलझ पड़ा हूं जब उम्र ए शबाब से
कासीर हूं अब अदब ओ आदाब से
मिट्टी भी जड़ों को ऐसे पकड़े रहते हैं
गिला नहीं कभी कैक्टस को गुलाब से
मोहब्बत बड़ी दिलकश चीज़ है प्यारे
पढ़ा हूं मैं भी रोज़ इसे इक किताब से
खुदा इतनी तो अजीयत न दे मेरे मौला
डर ही न हो ज़रा भी गुनाह ओ अजाब से
मोहब्बत मिसालों की तस्बीह है प्यारे
रहबर ने पुछा था कभी शादाब से
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मिलेगा इसका भी अज़्र तुम्हें ज़माने में
बे इंतहा रहमत है रब के ख़ज़ाने में-
मेरे कल्ब का खुंरेज़ है वो सज़ा से दूर रहे
मैं चाहता भी हूं मेरे इश्क़ में मगरूर रहे
क़िस्मत लिखी गई है जिस भी स्याही से
उस चहेरे पर सलामत यारों सदा नूर रहे
माफ़ कर चुका तमाम गलतियों को मैं
जान ताउम्र मेरी निगाहों में बेकसूर रहे
ये अलग बात कि जिगर जिस्म ज़ख्मी है
कोई वबा उसे न हो जो एकदम नासुर रहे
वो कतरा भर भी इश्क़ दे लाज़मी मुझे
मेरे रग ओ जान में भले वो कोहिनूर रहे
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ये वक्त मेरा अभी साज़गार नहीं है
बहती हवा में भी ज़रा बयार नहीं है
फैसले है जिंदगी के समझो तुम
ये मेरा कोई ज़हनी खुमार नहीं है
दिल को कब्रगाह बनाया है मैं ने
उधर मत देख के ये बाजार नहीं है
शादाब बनाया है बड़ी मुश्किलों से
इस गुलिस्तां में कोई खार नहीं है
रौशनी दूंगा जलाए रखना मुझे तुम
रहबर इक दिन का तो दरबार नहीं है-