shadab Rahbar   (रहबर)
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Joined 25 April 2019


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6 AUG AT 20:23

ईमान पर कायम है जहान
इसके बिना कैसे बनोगे रब के मेहमान
इस तोहफ़े पर नहीं है शायद ध्यान
इसलिए तो दुनियां हो चुकी है ज्यादा परेशान

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4 AUG AT 22:35

माज़ी के हर अफ़साने में बदकिरदार हूं मैं
आ भी जा दीवाने, अब तो वफ़ादार हूं मैं

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3 JUL AT 23:58

दे दिया कर्बला में शेर ए अली ने अपने नुरैन को
पानी भी तड़प रही थी के छू सकूं लब ए हुसैन को

यजीद तेरी सल्तनत के आखरी अय्याम थे वो
कयामत तक याद करेगा हर ज़माना हुसैन को

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3 JUL AT 16:22

ढा लो जी भर कर ज़ुल्म ए हिंद के वक्त ए यजीद
बिखरी जो गुलिस्तां तेरी तो फिर शादाब नहीं होगा

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12 JUN AT 2:53

बहुत खुश होकर एक रोज़ खफा हो जाऊंगा
ज़माने से मैं भी जाना ऐसे बेवफ़ा हो जाऊंगा

दौर ए सितम कर ले अभी ए ज़िंदगी तू भी यार
मत रोना के इक रोज़ मिट्टी का गजा हो जाउंगा

मेरे आसूं रफ्ता रफ्ता इतना तो भीगा ही रही है
यानी के न बदलने वाली कभी कबा हो जाऊंगा

ज़ेहन आबाद अब कहां होती हैं लोगो के यारों
नाम ओ नसब से फलां बिन फलां हो जाऊंगा

ख़ुद को करके पोशीदा रब के दयार में प्यारे
न हो रहबर कभी रौशन ऐसी शमा हो जाउंगा

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29 MAY AT 0:27

बच्चा जब बिलखता है मां सीने से लगा लेती है
परिंदे दाने लाके बच्चों को खिला देती है
जमीं को जब ठंड लगती है पेड़ अपने पत्तों से उसे छिपा लेती है
सूरज जब गुस्सा हो जाता है
आकर बादल गले लगा लेती है
चांद को तन्हाई सताती है तब तारे
झुरमुट बनाए हुए आते हैं
दिन को जब डर सताता है
रात उसे अपने गिरफ्त में ले लेती है
सुबह जब युवा होता है तो दोपहर देता है ताकि संघर्ष तीव्र हो
प्रेम भी उन्हीं सब का पर्याय है
कोई बिलखे किसी को तन्हाई सताएं
किसी को डर लगे कोई तड़पे किसी का संघर्ष किसी बिना शोभा न लगे
तब उसे चाहिए की वो अपने प्रेम के निकट प्रेम से जा पहुंचे यही संसार का नियम है।
अंतः लौटना ज़रूरी है।
रहबर

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28 MAY AT 0:45

जन्म के बाद से ही जैसे बड़ो को करते देखा
ठीक वैसे ही करने की कोशिश करने लगा

शायरी में जैसे पहली पंक्ति से दूसरी पंक्ति के
वाक्यों के अंतिम शब्दों को मिलाने लगा
तब ये एहसास कर पाया के ज़िंदगी शायरी
हो गई

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25 MAY AT 15:34

न बिछड़ना हो कभी ऐसी मुलाकात चाहता हूं
तेरे साथ मैं बसाना एक कायनात चाहता हूं

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25 MAY AT 15:29

हर मसअले का हल निकाला गया है
रात के कोख से कल निकाला गया है

हर किसी के जाने का वक्त मुकर्रर है
मिट्टी से दबा महल निकाला गया है

समंदर सा गहरा राज़ है मुझ में यारों
अभी कतरा भर जल निकाला गया है

दर्द ज़ख्म आंसू सबको समेटे हुए मैं
दिल के थैले से ग़ज़ल निकाला गया है

लौट आओ ए हयात की मल्लिका फिर
बंजर ज़मीं से भी फ़सल निकाला गया है

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22 MAY AT 20:07

गम ए दिल का शिकवा न शिकायत है किसी से
मेरे मुस्तकबिल का वो यारो इमामत है किसी से

मैं जानता तो हूं तेरे साथ मुक्कदर तो नहीं है मेरा
तू वादा कर हमेशा मेरी है भले फरागत है किसी से

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