मूद्दतों बाद, फ़िर सजाया आंखों को।
फ़कत आंशूओ ने फिर सुरमे की जगह ले ली।।-
"स्पृहा को राख मत कर "
जीवन-मरण की बात मत कर!
प्राप्त है जो, व्यर्थ मत कर,
उम्र कुछ भी हो मुसाफिर...
स्पृहा को राख मत कर!!
द्वेष, कुण्ठा को डपटकर!
स्नेह व उल्लास भरकर,
मृत्यु से अठखेलियां कर..
जिजीविषा का त्याग मत कर!
उम्र कुछ भी हो मुसाफिर..
स्पृहा को राख मत कर!!
क्या किया? ये याद मत कर!
क्या जिया?ये बात अब कर,
शेष है जो, जी ले हंसकर...
किंचित व्यथा की बात मत कर!
उम्र कुछ भी हो मुसाफिर..
स्पृहा को राख मत कर!!
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घर का, सबसे तनहा अंधेरा कोना ही अब अपना लगता है।
शबा! अपनेपन की रोशनी ने तमाचा खींच के मारा है।।
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देना है तो किसी के होंठों पर मुस्कान दे शबा!
अश्क आंखों में देने को , तो सारा जहां बैठा है।।-
एक हम थें शबा!
जिसे अपनों के अलावा कुछ नज़र नहीं आया..
और एक मेरे अपने थें,,
जिन्हें मेरे अलावा सब कुछ नज़र आया....
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क्यूं खो सी गई हैं तेरे मेरे दरमियां की मोहब्बतें
क्यूं खो सी गई...
वो सपने, वो ख्वाहिशें, सब चूर हो गई..
क्यूं दूर हो गई? हमारी लब से मुस्कुराहटें..
क्यूं दूर हो गई...
तनहा मैं हूं यहां, वहां अधूरे हो तुम...
मुझ बिन कब- कहां पूरे हो तुम..
क्यूं बेसुध पड़ी? हैं ये तेरी मेरी चाहतें..
क्यूं बेसुध पड़ी...
हर रात गुज़ारी है रोकर, क्यूं रहे न तुम मेरे होकर..
क्यूं तुम्हें खोकर? नहीं मिलती दिल को राहतें..
क्यूं तुम्हें खोकर...-
शबा! अश्कों ने ही निभाई दोस्ती सच्ची...
बाक़ी तो सब मौसमी हुनर वाले थे......-
मेरे अश्क ही तो मेरे सच्चे साथी थे ,,,,,,,
नासमझ थे. जो तेरे कन्धों को अपना सहारा समझ बैठे....…-
जीवन में कभी-कभी दवाइयों से अधिक
स्नेह की आवश्यकता होती है,,,
किन्तु तब स्नेह दवाइयों से अधिक
मंहगा हो जाता है...-
शबा! यूं उंगलियों पर दिन लेकर आया ना करो..
दो पल सावन फ़िर पतझड़ ही रह जाती हूं मैं।
मत पूछ कि तेरे बाद कैसे संभालती हूं ख़ुद को..
दिल चीख़ता है बेहद और चुप सी रह जाती हूं मैं।
तुम्हें छोड़ने गई थी ना जिस चौराहे तक मैं..
उस चौराहे से ना ख़ुद को ख़ुद संग ला पायी हूं मैं।
सुनो अगली बार आना तो कभी ना जाने के लिए..
फक़त ज़ब भी जाते हो मर ही जाती हूं मैं।-