शान्तनू मिश्र🖋️   (©Shantanoo)
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Joined 9 March 2020


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Joined 9 March 2020

मोल क्या उन अश्रुओं का, जो विरह को सींचती
क्या कहूँ उस भावना को, जो प्रेम से है जागती,
अरे! दर्द तो बसा है केवल, उस कृषक की आँख में
जो देखते हैं अपनी मेहनत, डूबती बरसात में।।

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कइयों ने कलम को हथेलियों से थाम कर
दुनिया को नई तस्वीरों में पिरोया है,
ये तो अभी शह और मात का जमाना है साहब!
कहीं ये बेड़ियों को खोल तस्वीर बदलने निकल पड़े
तब क्या होगा?

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प्रजातंत्र

मैं कौरव नहीं मैं कंस नहीं
मैं रावण का हूं अंश नहीं,
मगर भय ही ऐसा है
मैं शकुनी से भी कम हूं नहीं,

संसार तो मेरा बंधक है
असुरों से सजी हुई तंत्र है,
मैं जहां फेंक दूं पासा अपना
बस वहीं षड्यंत्र का मेला है...

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कितनी बार समय ने मुझे अपना बना लिया
उसके साथ बस चलता गया चलता गया,
मगर एक समय आया जब दिल ने कहा कि
रुक जाओ, सोचो
तब समझ में आया कि चलते चलते बहुत कुछ
मैं पीछे छोड़ आया।

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शब्दों में जिनके तेज था
मुख पर केवल प्रेम था
चरणों में जिनके स्वर्ग छिपा
वन्दन उनको मेरा सदा।।

जिनके आगे इंद्र झुका
जिनसे धर्म ने विस्तार किया
जीवन का था उपदेश दिया
वन्दन उनको मेरा सदा।।

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कुछ खोजने के सिलसिले में
बहुत कुछ पाया था
बस याद आता है वो समय
जिसमें मैंने बहुत पाकर भी खोया था।।

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करना छोड़ दिया है कुछ अक्षरों ने लिहाज़ आज का
और बना लिया बसेरा छल को जब पन्ना ही बिसात था।।

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काला सवेरा भी कल की धूल को बेहिचक झाड़ लेता है
अंधेरे की ओठ में पड़े पंखों ने खुदको सपनों के लिबास में लपेटा है,
बस खुशी इस बात की है कि दुख कुछ समय से कहीं दूर लापता है
वरना बादलों की तरह हालातों ने मुझे खुदके ही सवालों में समेटा है..

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मेरी चौखट की चिट्ठी ने भी पता पूछा है
रात के उस सर्द रेत ने हवा को खोजा है,
कुछ समय ने बांटा कुछ यादों से पूछा
सफर ने भी अब अपने मंज़िल को पाया है।।

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क्षितिज भी मौन होकर ढूंढता है लक्ष्य को
भेद के रहस्य भी हैं देखते गवाक्ष को,
मन्द रोशनी ने भी दिखा दिया है स्तय वो
रंक से विभेद स्वप्न देख रहे आज को।।

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