नव नूतन निज निखिल नवोदय,
मृदु मोहित माधुर्य मनोमय,
सरस सुगन्धित सुन्दरता सम,
भोर भाॅंति भविता भानूदय।
कुसुम कौस्तुभ कमलिनी किसलय,
भ्रमित भ्रमर भवभूति भावमय,
तृप्त तुङ्ग तत्पर तर्वाश्रय,
आर्य अश्विनी आदित्योदय।
रश्मिरथी रक्षक रमणार्थी,
जगज्जनक जीवन जयमार्गी,
प्रथम प्रदीप प्रकाशित प्रहरी,
जय जयदेव जयति जय जयश्री।-
जब मैं स्वयं से कभी वार्तालाप करती हूँ,
तो हृदय की धड़कनें श्रुतिमधुर होती हैं।
मानसिक विचारों की सरिता कानों में गुञ्जित होती है,
और जीवनमार्ग की धुन्धलता विस्मृत होती है।
मेरे चिन्तन का शब्दशोर थम जाता है,
और आत्मा की वाणी स्पष्ट होती है।
मैं अपने विचारों की गहराइयों में अवतीर्ण होती हूँ,
और स्वात्मा को प्राप्त करती हूँ।
जब मैं आत्मसाथ में वार्तालाप करती हूँ,
तो मेरे सङ्कल्पों को नवीन प्रेरणा मिलती है।
मेरे हृदय की हर अभिलाषा पूर्ण होती है,
और जीवन में नवीन आशा का सञ्चार होता है।-
मैंने एक कविता लिखी,
कविता भी मन से लिखी,
कविता में भाव भरे,
अभिव्यक्तियों से विचार गढ़े।
कविता में कभी 'प्रेम' लिखा,
गूढ़ ज्ञान का मार्ग लिखा,
कभी राज लिखा, कभी नीति कही,
कभी धर्म लिखा, कभी प्रीति कही।
कविता को किश्ती कहा,
फिर अलङ्कार पतवार बनी,
कविता को प्रवाह मिला,
चलती रही बहती गयी,
फिर कविता सागर में जा मिली,
अमित विस्तार लिया, अमर हो गयी।-
Sometimes I feel like I'm drowning in my own problems, and I don't want to pull others down with me."
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प्रेम में छले गये पुरुष
ठुकरा दिये जाते हैं,
अनजान रास्तों पर।
फिर आवारा गलियों में,
खोजते हैं अपना 'अस्तित्व।'
हर मार्गी में,
अपनत्व की तलाश करते फिरते हैं।
विभोर पुरुष की द्रवित ऑंखों में,
फिर भी परिलक्षित होता है,
असहनीय को सहता
उनका साहसी चरित्र
और प्रकृति में उनका पराक्रम।-
प्यारी दीदी सुन,
माॅं से मेरे नाम का रक्षासूत्र बंधवा लेना,
अपनी कलाई पर इस बार,
और सङ्कल्प लेना हर बार की तरह इस बार भी,
कि हम इसी तरह हमेशा साथ रहेंगे।
माॅं को गले लगाकर कह देना मेरे लिए कि
"लड्डू" तू ही मेरा भाई है।
बाॅंध देना पप्पा को एक राखी,
उनकी बहन की ओर से,
और कहना "भैया मेरे, आप अमूल्य हैं।"
बुआ की ओर से कह देना कि "भैया आप मेरे वीर हैं, मुझे हमेशा आपका साथ चाहिए।
और सुन दीदी,
माॅं को जब राखी बाॅंधना,
तो बिन कुछ कहे ऑंखों से व्यक्त करना,
कि उससे बड़ा योद्धा हमारे लिए कोई नहीं।
उस जैसा रक्षक कोई और नहीं।-
हमें एक ऐसे सुन्दर
साॅंचे का निर्माण करना है,
जिसमें हम स्वयं को ढालकर,
स्वचरित्र को उत्कृष्ट बना सकें।
निराकार वो साॅंंचा,,
अनन्त सद्भावनाओं से युक्त होगा,
उसमें अनेक सकारात्मक चेतनाऍं होंगी,
जो सन्मार्ग पर हमें प्रेरित करेंगी।
साॅंचे से फूल के सामान,
फिर गढ़ा जाएगा हमारा अस्तित्व,
रचा जाएगा हमारा परिचय,
उस साॅंचे को हम स्वयं रचेंगे।-
स्वहित साधने का स्वभाव हमें परार्थ तक नहीं ले जा सकता, और जब-तक परार्थ का बोध नहीं होता हम परहित का पथ नहीं पा सकते अर्थात् हम परोपकारी नहीं हो सकते।
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आज गली में विचरते,
मानो पिपासा से व्यथित,
शोक़ से द्रवित,
दारुण दुःख के अश्रु लिए
एक मज़दूर देखा गया।
उनके मुख से व्यक्त होती
एक अकथित कथा..
जो हमें समझ में आयी,
पास जाकर उनसे पूछा गया..
अंकल सुनिए..!!
"पानी पाऍंगे आप?"
क्या हुआ है?
वो बैठ गये पास के चबूतरे पर,
एकदम मौन...!!
कुछ घड़ी बाद,
हॅंसकर धैर्य से कहने लगे..
पानी से तृप्ति की नहीं ये प्यास है,
तुम जैसे अपनेपन की इसे तलाश है..!!
शामिनी मिश्रा
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