हो गया था वो खोखला,
खुद से खुद को कर जुदा।
ना कोई अब आस थी,
रूह भी उदास थी॥
ये चलते-फिरते दृश्य में,
ये दोहरे चरित्र में,
वो खुद को ना ही पा सका,
ना प्राण ही जगा सका॥
वो ढुंढने ही खुद को,
निकल पड़ा बाजार में।
ना भाव अपना पा सका,
ना मोल ही लगा सका॥
सोच की अचल गहराई को,
वो नित्य ही मापता गया,
ना थाह वो लगा सका,
ना उम्मीद ही जगा सका ॥
ये कर्म की कहानी में,
या धर्म की किताबों में,
निर्दोष हो के भी भला,
क्यूँ रोज़ रोज़ वो जला।
क्यूँ रोज़ रोज़ वो जला॥
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