ज्यादा करीब न हुआ कर किसी से भी ए जिंदगी...
करीबियों से राज छुपाने बड़े मुश्किल होते...-
यादें भी ...बहुत कुछ समंदर सी हैं ...
अच्छी यादें तलहटी में, सीप सी पड़ी रहती ...
तो जनाब जब मर्जी गोते लगाएं और खुश हो जाएं...-
कुछ मैं हूं कुछ सपने
चल चल पड़े
कुछ रस्ते है टेढ़े, दिखते अंधेरे
पर कुछ अच्छे की गंध,
चल चल पड़े
कुछ खतरे, कुछ गलती,
कुछ ठोकर भी पड़े सहने
चल चल पड़े
मर्दों की बस्ती, बेफजूल हस्ती
कुछ करने की चाह,
कुछ गढ़ने की शायद मिल जाएं राह
चल चल पड़े
न रुकने की चाह, न रोकन वाला कोई
छत रोटी की डर, तज भी दे तू अब
चल अब चल पड़े-
क्या सचमुच बनना चाहती हूं मैं .…
अपनी मां जैसी मां..
जो थी बस औरों में रत... नहीं थी उसकी कोई चाह ..
हो भी तो न जाननी चाही... किसी ने खास
आज जो मै देखूं,... भीड़भाड़ की बस्ती
अपने में चुपचाप सिमटी... उसकी हस्ती
है सबको उसका ख़्याल...
वक्त का पर उनके रहता अकाल...
औरों में रत... क्यों रह गई वो ऐसी औरत
क्या बनना चाहती मैं... सचमुच ऐसी औरत...?-
"औरों" में रत ...बस इतनी ही है "औरत "
...और ...बड़ी देर हो जाती ये समझने में
कि ...बस इतनी ही क्यों है... "औरत"..?-
"It's hard to find people
who share your interests ..
...and genuinely appreciate them
so.. try to adapt ..Wherever you are" .-
हद से ज्यादा ..पैसों से प्यार (गुरूर)..
इसके लिए तो रिश्तों को ताख पर रखना ही पड़ेगा यार...-
आप कैसे हैं... ये आप अच्छे से जानते हैं
झूठ बोल कर भी बेखौफ नजरें खुद की.. खुद से मिला ले...
तो..झूठ बोलना फायदे का या फितरत हि हो सकती
...क्योंकि ...
खुद ही खुद से झूठ कोई बोल ले मुमकिन नहीं जनाब..-
खामोशियां... कभी बेनामी नहीं होती यारा...
बस चुप चाप ...सुनने वाले नहीं मिलते...-