ए इश्क।
तुम हसीं तो बहुत हो। तभी मुझे तुमसे इश्क हो गया। राहें हैं कंटीली बहुत तुम्हारी फिर भी मैंने हिम्मत दिखाई और कूद गया इश्क के मैदान में। लहू-लुहान हुए पांव मेरे लेकिन हार न मानी मैंने। मुझे मेरे घायल पांव ऐसे लगे जैसे मैंहदी हो लगाई। मैं बुनता रहा सपने तेरे, मुझे उस कंटीली राह का भान ही न हुआ। शायद ऐसा ही होता है ए इश्क तू कि मैं हर तकलीफ़ हर ग़म अपना भूलता चला गया।
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