घर वो होता है,
जहाँ माँ की ममता का आँगन होता है।
घर वो होता है,
जहाँ जीवन लुटा देने वाली पत्नी का स्नेह होता है।
घर वो होता है,
जहाँ सम्मान और संस्कार देने वाले बच्चे होते हैं।
घर वो नहीं,
जहाँ लौटकर आने का मन न हो,
बल्कि घर वही है,
जहाँ हर बार लौटने की तड़प हो।
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Working as Dy.Supdt.
मासूम होती हैं ये आँखें बहुत,
जब-जब तलाशी ली इनकी—
सब कुछ कह देती हैं।
मासूमियत की हद तो देखो,
इक बार भी न रख पातीं कोई राज़।
राज़ छुपाना आता ही नहीं इनको।
शीशे-सी पारदर्शी हैं,
जो देखती हैं—
वही बयाँ कर जाती हैं।-
रूह की ख़ुशबू
यूँ ही नहीं उतरती रग-रग में,
हवाएँ गवाह बनती हैं
उसके हर एहसास की।
बिना हवाओं को छुए,
कभी रूह से मुलाक़ात हुई है क्या?
हवा ही तो है—
जो महक को ढोकर
दिल तक पहुँचाती है।-
जब भी आते हैं जज़्बात तेरे,
आँखों से दुश्मनी निभाते हैं।
बहा देती हैं आँखें हर एहसास,
क्षण भर भी नहीं रख पातीं भीतर।
मानो उनसे कोई पुरानी दुश्मनी हो।
दो दिन अगर ठहर भी जाएँ,
तो लौटते वक्त ले जाते हैं
दिल की गहराइयों से बहुत कुछ।-
मेरी धड़कनों को
न जाने कौन सा रोग लगा है—
जब भी सुनती हैं वो जिक्र तेरा,
यकायक जी उठती हैं।
क्या कोई संजीवनी बूटी लाई है
इन धड़कनों के लिए?
जो तेरे नाम से
हर बार फिर से जिंदा हो जाती हैं।-
माना कि पुरुषों ने खोजी हैं सभ्यताएँ,
पर स्त्रियाँ कहाँ कम हैं किसी से।
हर स्त्री ने खोजा है वो मार्ग,
जहाँ तक पुरुष की कल्पना भी न पहुँच सकी।
पुरुष के पेट गुज़री हर राह से,
हर स्त्री उतर गई उस संकरी गली में—
हृदय की,
जहाँ कोई और टिक न सका,
सिवाय उसके,जिसने उसे तलाशा।
पुरुष रहे कुछेक,
जो सभ्यताएँ खोज पाए।
पर हर स्त्री हर बार खोज ले गई
वो संकरी गली—हृदय की।
और इसी कारण,
हर दफ़ा स्त्री रही श्रेष्ठ।-
जो रोक सके मुझे,
वो कमी हो मेरे जीवन की— तुम।
तुम अगर होती मेरे अंग-संग,
तो कोई कमी न रहती कहीं।
ना मैं जान पाता पीड़ा का स्वाद,
ना दर्द-ए-दिल को थामे फिरता हाथ में।
तेरी बस इक कमी ने देखो,
क्या से क्या कर दिया इस जीवन को।-
ख़ुशी देती है मुझे हर वो चिट्ठी,
जो लिखी हो तुमने दिल से।
मैं बार-बार पढ़ती हूँ
तेरे हर अल्फ़ाज़ को।
संभालकर रखा है उन्हें ऐसे—
जैसे सुहागन रखती है अपना श्रृंगार।
मेरे कंगन, मेरी बाली,
माँग का टीका, नथ—
तेरी चिट्ठियाँ भी वैसी ही हैं मेरे लिए।
गुम न हो जाए कहीं,
इस डर से रखती हूँ उन्हें तिजोरी में।
और कमर से बाँध रखती हूँ
उस तिजोरी की चाभी।-
ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव तेरी,
न जाने क्या सितम ढाने लगी है।
मैं तो था आशिक़ सादा-सा,
पर तू निकोहिश सुनाने लगी है।
न था कभी मेरे अंदाज़ में
इतना बेबाकपन,
मगर तेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव ही
मुझे इम्तिहाँ में डालने लगी है।-