सचिन भास्कर   (© bhaskar__write ✍️✍️)
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Joined 6 October 2018


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Joined 6 October 2018

आज रात फिर आँसू बहाए हैं,
दिल के जख्म खुद ही छुपाए हैं।
हर लम्हा किसी की कमी को सहा,
चाँदनी में भी अंधेरा ही पाया है।

वक़्त की चाल समझ ना आया,
हमेशा अपनों ने ही दिल दुखाया।
हँसते चेहरों के पीछे ग़म छुपा है,
हर साया आज भी मुझसे रूठा है।

जो साथ थे, अब बात भी नहीं करते,
जो वादे किए थे, वो वादे अब निभाते नहीं।
हर रिश्ता कुछ स्वार्थ में ढल गया,
जो दिल से जुड़े थे, अब दूर चला गया।

रातों की तन्हाई में फिर से डूबा,
यादों का सागर, आँखों से टूटा।
हर ख़्वाब अब धुंधला सा लगता है,
हर सवेरा सुना-सुना सा लगता है।

तू जो नहीं है तो कुछ भी नहीं है,
ये शहर, ये लोग, अब अपने नहीं हैं।
भीड़ में भी तन्हा हूँ मैं,
हर मुस्कान के पीछे रोया हूँ मैं।

फिर सोचता हूँ —
क्या मैं ही था जो सब गलत समझ बैठा?
या वक़्त ही था जो हर रिश्ता निगल बैठा?

पर चलो…
इन अश्कों को भी अब आदत बना ली है,
ग़मों की चादर को मोहब्बत बना ली है।
कल फिर से हँस लूँगा, दुनिया के लिए,
आज रात बस खुद से मुलाक़ात कर ली है।

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कल हुई मुलाक़ात मौत से

अर्ध स्वप्न में मुलाक़ात हुई ख़ुद से

ज़िंदा तो था तो मौत से क्यों मुलाक़ात हुई….

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जब आत्मा शरीर छोड़ दे, तो कहते हैं मृत्यु,
मगर जब आत्मा होते हुए भी दूर हो जाए,
तो उसे पागल कह देते हैं लोग।
ये समाज — दोहरे मापदंडों का पुलिंदा,
जो एक दिन खुद अपनी नींव हिला बैठेगा।

सुनहरे कल के ख्वाब देखने वाले,
पिसते हैं इस समाज के बेढंगे नियमों में,
जैसे पिसता गेहूं के साथ घुन संग में,
वैसे ही हर मासूम सपना भी कुचला जाता है।

आकर्षण — छोटा सा शब्द, जब प्रेम में बदल जाए,
तो कायनात बदलने की हिम्मत कर लेता है।
मगर जरूरी है — दो निर्मल आत्माओं का मिलना,
वरना ये प्रेम भी बन जाता है कोई श्राप जैसा।

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इंतज़ार और सच्चाई

जब आत्मा तन को छोड़ चली जाए,
तो दुनिया कहे — मृत्यु आई है।
पर जब आत्मा जीते जी खो जाए,
तो वही समाज कहे — ये तो पागल हुआ है।

दोगला है ये समाज, दोगली इसकी बातें,
कायदे-नियमों की बेमानी सौग़ातें।
कभी रिवाज़ों की बेड़ियों में कसे,
तो कभी सपनों को सच कह के हँसे।

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अधुना युद्धं स्वस्य परिवर्तनम् एव !!
It is better to change rather than change

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फिर एक बार-
भारत माँ का आँचल लाल हुआ
कायरों ने पीठ पीछे ख़ंजर घोपा
सुवरो ने अपना मुँह है खोला

अब तो कृष्ण को सुदर्शन चक्र उठाने दो
शत्रुओं का सर्वनाश करने दो
ओ! शासन के रखवालों
ओ! धर्म में लड़ाने वालो
अब तो अपनी आँखो को खोलो तुम
मौत का तांडव मचाने दो

गांधी के अहिंसा परमो धर्म!
को अब तो पूरा अर्थ समझने दो
क्यों नहीं-
अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:
का अर्थ समझने देते हो
क्यों अब कृष्ण को सुदर्शन उठाने देते हो

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तू मनुष्यता के तन-मन पर विषमय डंक
तू मनुष्यता के ज्योतिर्मय पथ का पंक
तू मनुष्यता के शशिमुख का कलुष कलंक
तू मनुष्यता के विरुद्ध अपकर्म अशंक
तू अनक्ष, तू अनय अनंकुश, तू आतंक !
तुझ पर कैसी कविता ! तुझ पर थू आतंक !

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बरसाता ये मौसम गा रहा ये दिल है
सुर्खियों सी ये बाते की झीलमिल है
ये मस्तानी मुस्कान याद रखूँगा
ये पसमिनी सी पहचान याद रखूँगा
याद रहेंगे हर दिन हर रात तुझे
कैसे बयान करे ये दिल के जज़्बात तुझे
चाहे वो मंजिल हो सफ़र तो बहाना है
तुम साथ हो तो ज़िन्दगी का हर पल सुहाना है

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मेरी दुनिया थी जो वो दुनिया उजड़ गई
मुझे बदल कर के वो खुद ही बदल गई,

क्या कहें कि सारा खेल था किस्मत का
हाथ तो आई मगर हाथ से फिसल गई,

मोम दिल है वो मोम कहते हैं उसे लोग
दिल को मेरे जिसने पैरों तले कुचल गई,

इश्क मोहब्बत चाहत कुछ भी न छोड़ी
एक बार मे ही सारी खुशियां निगल गई..!!

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समझा रहा हूँ ऐ जिंदगी
तू फिर लौटकर आना
छूट गए जो रास्ते सफ़र में
पूरा करने, तू लौटकर आना
आवाज़ नहीं लगाऊँगा तुझे
छूटी जो आस, अब आस ना लगाऊँगा
ख़ुद की कहानी लिखने
खून की मसी बनाऊँगा
समझा रहा हूँ ऐ जिंदगी
अब तुझे आवाज़ ना लगाऊँगा
परिस्थितियों पक्ष में हो या हो विपक्ष में
मैदान छोड़कर ना जाऊँगा

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