बन जाएंगे!
यदि, ना बन पाए ज़िन्दगी में कुछ भी,
शिक्षक तो बन ही जायेंगे।।
छोटी सी चॉक, काली दीवार,
कुछ लफ्ज़, कुछ आधार,
कुछ किताबों को पकड़े,
आंखों में ऐनक टाँगे।
हम बन जाएंगे!
जी हाँ! शिक्षक तो बन ही जायेंगे।।
लिखना-लिखाना, चलना-पकड़ना,
कर्तव्यों का मूल्यांकन करना,
कक्षा को दिशा दिखना,
जीवन के आदर्श सिखाना,
हम कर जाएंगे!
हम शिक्षक तो बन ही जायेंगे।।
सृजन के उत्कर्ष को समेटे,
विद्यार्थियों का हाथ पकड़कर,
उनके साथ उनके लक्ष्य पिरोकर,
शून्य से अनंत पथ बन जाएंगे।
हम बन जाएंगे।
जरूर! हम शिक्षक तो बन ही जायेंगे।।
आचार से, व्यवहार से,
चरित्र यथा सदाचार से,
धीर से, विचार से,
चाह से, अधिकार से,
क्या बन जाओगे?
बन जाएंगे!
हम पूर्णतः शिक्षक बन ही जायेंगे।।
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17 may🎂
To look the nature in a different way.
Novelist, sometime... read more
दिनकर ने जब चिंगारी बनकर,
अम्बर को गरमाया है।
वसुधा ने तब प्रेमी बनकर,
रवि को रक्त पिलाया है।।
स्वयं ताप को सहकर,
अम्बर को छाँव का दान दिया।
देकर बादल का परिधान,
अम्बर को अपना प्राण दिया।।
वक्ष फटा देख अम्बर,
पीड़ा से तड़पाया है।
वसुधा की इस निर्मम हालत पर,
क्षण-क्षण अश्रु बहाया है।।
प्रेम विरह में पीड़ित प्रेमी,
कोई जला है, कोई रोया है।
नहीं यूँ ही बाद आषाढ़ के,
सावन भीगता आया है।।
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वो कहते हैं भूल गए हैं!
वो साथ बैठकर हाथ थामना,
माथे को बेतरतीब चूमना,
वो हृदयस्पर्शी आलिंगन,
वो संग महकता छोटा बचपन,
वो चुस्की चाय की प्याली में,
वो नजर प्यार की थाली में,
वो स्पर्श सिहरता सम्पूर्ण बदन,
वो चंचल चितवन उन्मत्त मन,
वो पलंग छाँव शीतलता सी,
वो भाव बड़े प्रबलता सी।
वो कहते हैं वो भूल गए,
सब छोड़ पीछे है बढ़ गए।
वो कहते ये सब भूल गए!
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भरे बाजार में यूं कौन भला फिरता है,
दूर कहीं आग में कौन भला जलता है।
मुकद्दर ने ठान ली जिद रुसवाई की,
वरना!
खुद की लकीरों में कौन भला मिटता है।।-
हम मिलजुल कर कर्मों से अपने लक्ष्यों को पाएंगे।
हम भारतवासी, भारत माँ का नाम बढ़ाएंगे।।
है विश्वास हमें! एक दिन छू लेंगे गगन को हम,
रख हौंसला, मुमकिन हर सपना करेंगे हम।
जलाएंगे लौ विश्वास की, मानवता की,
लिखेंगे हम कहानी अपनी ऊंची उड़ानों की।।
हम हाथ से हाथ मिलाते जुड़ते जाएंगे।
एक-दूसरे का साथ लिए बढ़ते जाएंगे।।
हम मिलजुल कर कर्मों से अपने लक्ष्यों को पाएंगे।
हम भारतवासी, भारत माँ का नाम बढ़ाएंगे।।
कह देंगे ललकार के डरते नहीं हैं हम,
जीवन की बाधाओं से पीछे हटते नहीं हैं हम।
मेहनत से अपनी हमने, पथ को सींचा है,
नव निर्माण का हमने बीज रोपा है।।
हम टेरेसा के साथी अपना भाग्य सजाएंगे।
जिद है हमारी हम फिर नया सवेरा लाएंगे।।
हम मिलजुल कर कर्मों से अपने लक्ष्यों को पाएंगे।
हम भारतवासी, भारत माँ का नाम बढ़ाएंगे।।
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देख रहा हूँ!
बदलती करवटों में,
तड़पती रात को।
दुल्हन के सुहाग में,
मिटती हुई जात को।
चुँधियाया सा!
मैं ढूंढ रहा हूँ-
दफन कौन मिट्टी में,
कि डूबा कौन चादर में,
ली साँस जिस मासूम ने-
थमती धड़कनों के आँचल में।
न इल्म इस नासूर का,
ना जानता ख़ुराक हूँ।
इस खुली हवा में मैं-
घुट रहा भोपाल हूँ।
क्या घटा, क्या पता-
घुट रही है ये छटा।
मैं मौन सी किताब हूँ,
मैं घुट रहा भोपाल हूँ।
चीख़ता हूँ; कि आवाज मुँह आती नहीं,
दूर तक देखूँ, जिंदगी नजर आती नहीं।
किलकारियों में खून के छींट है बिखरे हुए,
मुझमें वो महफ़ूज सी साँस अब आती नहीं।
.... Continued
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कनकमयी करुणाकर रघुवर,
भाल सुशोभित राजे दिनकर।
प्रभुवर रूप अयोध्या राजा,
सियाराम तिहं कण-कण वासा।।
त्रेता जुग दशरथ घर जन्मे,
रघुकुल राम चले वन-वन में।
पग धर शिला-अहिल्या तारी,
भ्रातु लखन संग ताड़का मारी।।
जनकपुरी पुरूषोत्तम जाये,
माँ सीता संग ब्याह रचाये।
पिता-वचन रख सिर-माथा,
तजे राज्य, सुख-वैभव नाथा।।
केवट ने प्रभु-नाव तराई,
चित्रकूट पहुँचे रघुराई।
हरे प्राण खर-दूषण के,
चाव-चबाए बेर शबरी के।।
मिले हनुमंत सकल जग जानी,
सागर बांध सेतु की ठानी।
चड़े लंका प्रभु दल-बल से,
मिलन हेतु पुनः सिया से।।
हारा प्रभु ने कुंभकर्ण को,
दिया प्रश्रय भक्त विभीषण को।
दशानन का नाभि-कुंड छेदा,
तिमिर काल श्रीराम ने भेदा।।
राघव की लीला का रस ये,
सत्य विजित तमस् काल ते।
पूजित सब जग राजा राम,
पतित पावन सीता-राम।।-
जीवन के कोरे कागज में,
वक्त की मार की सिलवटें-
लिपटी मिली, लेखनी की करवटों पर।
कहीं सख़्त स्याह सी,
नरम सी कहीं शून्य पर।
गहराइयों में इस थकान की-
निकल भागने लगी स्मृतियों की कथाएं!
स्तब्ध सा हृदय,
दवात की चिता पर बैठा-
लेखक को सहला रहा है।।-
दिनकर के प्रकाश तले छुपती शाम,
किवाड़ खोले खड़ी आराम कुर्सी-
थक गए हैं, श्रांत हैं।
पथिक आ गए हैं, छांव में!
पूर्ण कर यात्रा एक-
जीवन के अर्थ की।
किन्तु! कुछ छायाचित्र रह गए,
स्मृति पटल पर!
यौवन के दिन,
अल्हड़ मुख-कान्ति के दिन,
कुछ मित्रों का संग-
प्रतिदिन! प्रतिपल।
ढलती शाम में चले गए,
पथ पकड़े प्रत्येक पथिक-
राह अपनी!
एक बूँद शेष अश्रु की-
नयनों के आनत तल से!
स्पर्श करती सन्दल वायु,
स्मृति पटल को!
निहारता पथिक, आराम कुर्सी पर,
अग्रिम यात्रा के पथ को।-
क्या शून्य धरा को समझूँ मैं,
प्रतिपल बाधा में उलझूँ मैं?
माँ के तर अंचल से उतरा,
बाबा के जूतों में संवरा।
तुम कहते तमस व्याघ्र सम है!
पुलकित मन का भान कम है!
लिप्सा-अनल में सोम भरा,
भीड़ भरी, क्यों एकल डरा?
पथ कीलित, पथिक रुधित,
दिनकर दिवस में पीड़ित।
फिर कहते स्वागत योग्य तुम्हीं,
जीवन, जिज्ञासा, ज्योत यहीं,
कौतूहल संसार कहा,
सत्य चराचर चिरकाल रहा,
साँझ स्वप्न संग आए,
प्रेम भीग-भीग बरसाए।
यहाँ शब्द, शब्द का अर्थ विलोम,
किंकर्तव्यविमूढ़ सा रोम-रोम।
सोचूँ मैं, क्या जीवन समझूँ मैं,
तरने भवसागर! उलझूँ मैं?
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