Kajal Singh 'Rooh'   (Rooh)
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इश्क़ के सारे रंग मेरे चेहरे से बने हैं 💙
Joined 29 June 2019


इश्क़ के सारे रंग मेरे चेहरे से बने हैं 💙
Joined 29 June 2019
13 FEB 2023 AT 22:18

निश्चित था तुम्हारा जाना
जैसे आकस्मिक था एक साँझ
तुम्हारे पांव चूमना।
कितने चुंबन लिपटे थे
तुम्हारे पांव से जाते समय।

मैंने सदैव अभिलाषा की
तुम्हारे उस भाग को छूने की
जो तुमसे भी तिरस्कृत रहा।

मेरे अधरों पर छपे है
तुम्हारे द्वारा भोगे गए
यात्राओं की अनुभूति
और उनका खारापन।

तुम्हारी स्मृति शिला में कैद है
होठों पर किए अनगिनत बोसे
मेरे होठों ने गिने है तारों जैसे
कोशिकाएँ तुम्हारे पांव की।

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6 FEB 2023 AT 23:57

वो पिछले पायदान -सी थी
जिसे छोड़ बढ़ाए गए कदम
आगे की ओर तीव्रता से

जिसपर रुक कर किसी ने
साँसें ली, सीखी जिंदगी
सोखा जिसका नमक
खींचा जिसका प्रेम
देह के कोशिकाओं से

एक रात उठा लिया गया
उस से एक - एक कर पांव
उसकी रिक्तता पर अब
धूल की परत जम गयी है

क्या जानते नहीं तुम?
बढ़े कदम कब वापस आए हैं।

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28 JAN 2023 AT 6:28

कैप्शन पढ़ें।

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24 DEC 2022 AT 20:26

दिसंबर के सर्द रातों में
मन की खिड़की पर
बर्फ़-सा जम जाता है
तुम्हारे जाने के उपरांत
मैंने जला कर तापा
तुम्हारी यादों को



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22 DEC 2022 AT 0:25

तुम और मैं क्या है?
दो शून्य एक दूसरे के विपरीत खड़े
या एक धुरी पर घूर्णन करते
दो समरूप ग्रह
या दो समानांतर रेखाएं
जो अनंत मे मिल जाते हैं

मैं और तुम
प्रेम के पर्यायवाची है
और एक दूसरे के विलोम

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18 DEC 2022 AT 15:06

ऐसे वैसे जाने कितना कैसे
मुझसे लिपटी तेरी साँसे कैसे

तुम तो फ़ासले से खड़े थे
फ़िर ये जिस्म महका कैसे

वस्ल की रात तो ख्वाब थी
ख्वाब जाने सच हुआ कैसे

होंठ मिले, आँखे बंद हुयी
तेरे बदन पे बिंदी मिली कैसे

छोड़ो, ये नीले फूल गर्दन पे
ये बताओ,चेहरे पे हया कैसे

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16 DEC 2022 AT 20:45

माया....

माया कौन?
माया क्या?

माया वो जो सबको अपनी मोह में बाँध ले.....

माया तुम वही माया हो या कोई और परिभाषा गढ़ूँ तुम्हारी....?

क्या तुम वो हो जो पानी की सतह पर अपने पांव रख कर सोचती हो समंदर तुम्हारी छुअन को पाकर नृत्य करेगा?

या तुम वो हो जिसको यकीन है कि चाँद उसकी जायदाद है और तितलियाँ उसकी आत्मा के टुकड़े जो टूटे तो देह से बगावत कर उड़ गए???

" मैं... मैं तो..."

तुम.... तुम एक शक्ल हो.... उदासी की.... भयंकर उदासी की... अकेलेपन की... दर्द की.....

फिर तो..

नहीं बदसूरत नहीं हो। तुम्हें नहीं पता, दर्द बहुत ख़ूबसूरत होते हैं और तुम भी बेहद ख़ूबसूरत हो।

हा हा हा।

यकीं करो माया, कोई दर्द इतना खूबसूरत नहीं जितनी तुम हो। ये उदासी, ये बदहवासी भी कुछ ख़ास जिस्म पर ही जंँचती है। सारा बदन तुम्हारा एक अंतरिक्ष है जिसमें जाने कितने ग्रह और सितारे है दर्द के। ख़ैर.. तुम नहीं समझोगी।

ऐसा क्यूँ

क्यूँकी तुम ख़ुद को मेरी नज़र से नहीं देखती ना।

अच्छा, तुम किस नज़र से देखते हो?

मैं.... मैं तुम्हें 'मेरी' नज़र से देखता हूँ।

क्या मतलब

कुछ नहीं.....

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16 DEC 2022 AT 18:55

इक तरफ़ दुनिया के तमाम नशे
इक तरफ़ तिल तुम्हारी गर्दन पर

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17 OCT 2022 AT 21:26

वो जानती थी... अक्टूबर उदासियों और बेचैनियों का महीना है। कैसे गर्मी हाथों से फिसल रहीं और सामने बर्फीली ठंड खड़ी है। हाँ, ठीक वैसे ही जैसे तुम मेरे गर्म हथेलियों से अपनी हथेलियों को धीरे-धीरे खींच रहे हो और मैं ख़ामोशी से तुम्हारी हर उँगलियों को फिसलते देख रहीं हूँ ख़ुद से अलग होते हुए। कितनी बेचैन है ये अक्टूबर... चाहती है कि आवाज लगाकर कर रोक ले साल को बीत जाने से लेकिन ऐसा हो पाया है क्या ? क्या कोई आवाज देने से रुक जाता है? कोई जाए ही क्यूँ जब रोकने पर रुक जाए। जाना तो हमेशा से तय होता है ना। रोकने मे असमर्थ होने की उदासी जीवनभर रहती है। जैसे कोई पारिजात रात के पहले पहर में खिली और तीसरे पहर खुद टूट कर गिर जाती है। टूटने से ठीक पहले का भय तोड़े जाने का होता है, शायद इसलिए खुद टूट जाना बेहतर लगता है।

कभी हम कहानी का कोई एक हिस्सा नहीं बल्कि पूरी कहानी होते है जो वक्त बीतने के साथ महसूस करते है कि ये कहानी हमारी थी ही नहीं। हम बस पाठक थे जिसे मुख्य पात्र होने का भ्रम हो चला था।

चाहे हथेलियों में यादों की कितनी ही गर्मी क्यूँ ना हो नवंबर बीतते सर्द हो ही जाते है और दिसम्बर बीमार कर ही देती है।

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17 OCT 2022 AT 1:24

अक्टूबर के महीने में
प्रेम लौट आता है वापस

लौटते बरसात में खूब भींगी हूँ
उतार दिया है तुम्हारा पुराना दर्द
खाली कर दिया है ख़ुद को

तुम लौटना एक बार फिर से
रात के तीसरे पहर में
गिरना मुझपर पारिजात की तरह
प्रेम के सफेद फूल बनकर
तुम्हारे अलौकिक स्पर्श से
मेरे देह की धरा महक उठेगी

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