माया....
माया कौन?
माया क्या?
माया वो जो सबको अपनी मोह में बाँध ले.....
माया तुम वही माया हो या कोई और परिभाषा गढ़ूँ तुम्हारी....?
क्या तुम वो हो जो पानी की सतह पर अपने पांव रख कर सोचती हो समंदर तुम्हारी छुअन को पाकर नृत्य करेगा?
या तुम वो हो जिसको यकीन है कि चाँद उसकी जायदाद है और तितलियाँ उसकी आत्मा के टुकड़े जो टूटे तो देह से बगावत कर उड़ गए???
" मैं... मैं तो..."
तुम.... तुम एक शक्ल हो.... उदासी की.... भयंकर उदासी की... अकेलेपन की... दर्द की.....
फिर तो..
नहीं बदसूरत नहीं हो। तुम्हें नहीं पता, दर्द बहुत ख़ूबसूरत होते हैं और तुम भी बेहद ख़ूबसूरत हो।
हा हा हा।
यकीं करो माया, कोई दर्द इतना खूबसूरत नहीं जितनी तुम हो। ये उदासी, ये बदहवासी भी कुछ ख़ास जिस्म पर ही जंँचती है। सारा बदन तुम्हारा एक अंतरिक्ष है जिसमें जाने कितने ग्रह और सितारे है दर्द के। ख़ैर.. तुम नहीं समझोगी।
ऐसा क्यूँ
क्यूँकी तुम ख़ुद को मेरी नज़र से नहीं देखती ना।
अच्छा, तुम किस नज़र से देखते हो?
मैं.... मैं तुम्हें 'मेरी' नज़र से देखता हूँ।
क्या मतलब
कुछ नहीं.....
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