आज कल घर पुराने नहीं होते उनमें रहते हुए ज़माने नहीं होते रिश्तों की महक फ़िर भी है ताज़ा परिवार हैं भले ही घराने नहीं होते गोद में आज भी मां की ही सुकून है कुछ सुख कभी बचकाने नहीं होते
लंबा सफ़र लगता है... जब सांझ का पहर लगता है... जाने कौन मुखौटा पहन आ जाए अब नए रिश्तों से डर लगता है हम साथ हैं तो हवा भी गुनगुनाती लगे सन्नाटा अब शोर-सा, हर पहर लगता है परिवार है, तो दिन उत्सव बन जाता वरना 'घर' किसे 'घर' लगता है..!