डर में जी रहा हूं कहीं कोई खता ना हो जाए जो खाता की थी पहले वह जग जाहिर ना हो जाए माना कि हम कुछ ज्यादा शरीफ़ नहीं दुनियां के आगे हमारा चेहरा ना बदल जाए
मंजिल तो नज़र आती है धूप की किरण सी पर लाख कोशिश करने पर भी हाथ नहीं आते जब तक मालूम पड़ता है हाथ कैसे आएगी रात हो जाती है और सिर्फ उड़ी ही पास रह जाती है