सौरभ त्रिपाठी   (सौरभ त्रिपाठी)
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Joined 23 August 2018


Joined 23 August 2018

इम्तहान इश्क़ का क्या खूब था
राह में चलते चलते वो ठहर गयी
फिर हौले से हाथ पकड़ा
और बोली...
तुम आगे बढ़ो....
गर चलना शुरू करूँ तो
हाथ छूट जाए
ठहरूँ तो उसकी उसकी ख़िलाफ़त
दोनों सूरतों में दगाबाजी मेरे हिस्से थी
मैंने हाथ भी न छोड़ा और चलता भी रहा...
न मंजिल मिली न ठहराव हुआ।


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जब होने लगे उसकी मीठी आवाज़ से दिन शुरू,
तो ऐसा लगता है जैसे नमाज़ से पहले की हो वजू।

अब नहीं रही मेरे रब तुझसे कुछ भी पाने की आरजू,
उसे देके मुझे कर दी मुक़म्मल तूने मेरी सारी जुस्तजू।

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तलब नहीं मुझे किसी तलत की,
कोई रहनुमा तो मिले रुहदारी के लिये।

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क़त्ल भी मेरा और इल्ज़ाम भी मुझी पे क्या बेहतरीन अदाकारी दिखाई है,
अपना दामन तो रखा पाक मेरे दामन पे बेवफ़ाई की तोहमत लगाई है।

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मेरे क़त्ल का इंतज़ाम ज़रा इत्मिनान से करना,
गर हुए नाक़ाम तो अफ़सोस बहुत होगा।

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मैं तुम्हें क्या लिखूँ ....
मैं तुम्हें क्या कहूँ.....
गंधर्व लिखूँ या फिर देवदूत कहूँ
या देश की अखंडता पे जो उठाये उँगली
उनके लिए साक्षात खड़ा यमदूत लिखूँ
जो रखते जान हथेली वो वीर सपूत कहूँ
सुना है ! कहता है विज्ञान की शून्य से नीचे पिघल जाती हड्डियां....
फिर कैसे तुम सियाचिन में -40 पे खेलते हो क़ब्ड्डियाँ
कहते हैं लोग की 50 के पार तापमान में पिघलने लगती हैं मांशपेशियां...
मगर देखा है मैंने तुम्हें बाड़मेर में देश के लिए तुम्हारा अंदाज़ इश्क़िया.....
तूम हो खड़े वहाँ देश के लिए रक्षाकवच बन एक जलते मसाल ज्वलंत
तभी तो "सौरभ" जैसे नादान कुछ भी लिखने और बोलने के लिये हैं स्वतंत्र
बिना किसी स्वार्थ के तूम कर देते हो हमारे लिए अपनी साँसों औ'जीवन का अंत
तभी तो हम कह पाते हैं कि, है हमारा देश एक अखण्ड राज्य गणतंत्र।

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तेरा मुझे नकारना ज़रा सा नहीं खलता,
इल्म था "मुझे" की तेरे क़ाबिल नहीं मैं।

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सहेज बचपने को जवानी में जिंदा रखें हैं,
अपनी आंख में जमीर-ए-पानी जिंदा रखें हैं
माना कि उदासी उलझन मायूसी ने घेरा है,
पर बिन थके हंसती जिंदगानी जिंदा रखें हैं

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माना कि मेरे हालात-ए मोहब्बत गर्दिश में है, दिल किराए पर दूं इतनी भी मुफलिसी नहीं।

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बेसुध रहना ही मुनासिब है सौरभ,
सुध आते ही लोग ज़ख्म दे जाते हैं।

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