रिश्ते के चाक पर हमेशा नाचते हैं
कुछ लोग इतने करीब से आंकते हैं
मूल्य क्या होगा उनका यहाँ अश्क
जो खुद को खुद से बड़ा आंकते हैं।।-
प्रयास का सार्थी हूँ
शब्दों से सीखकर,
शब्दों को जोड़ता हूँ
शब्दों की गरिमा का मूलभूत ख्या... read more
राख ही तो है... कुंदन बन जाएगा
वो इस कदर तो मनोरंजन बन जाएगा
चाह तो सबकी है बड़ा बनने की यहाँ
वो जरा झुके तो अभिनंदन बन जाएगा ।।-
घोंसला
के रूप देखे गए
जहाँ नजर आई
छोटे-छोटे तिनके
टूटे बालों का गुच्छा
पेड़ की छाल से लपेटे
गुम्बद
और आराम करते
कुछ चिड़ियों के बच्चे
जो न दिखी
वो थे... चिड़िया के
टूटे पंख
पैरों से रिस रहा लहू
और चोंच की टूटी धार-
उन रास्तों को भी खबर हुआ करता था
जिधर से तुम्हारा गुजरना हुआ करता था
उम्मीद के बादल गरजते हुए बरसता था
दिन के उजाले में भी एक रात
हमारा हुआ करता था-
खामोश कन्धे
नहीं ढूंढते सर
जो बोझ होने के
बाद भी सुकून देता हो
मन व्यर्थ विचलित
नहीं होते अब
मन को
किसी के सारथी
बनने की चाह
नहीं रही
और किसी के
प्रेम भरे अवसाद में
खुद को अधपका
बनने की तैयारी
न रही ।
अब रिक्त ही रहेंगे
हृदय के वो जगह
जहां के बसे लोगों ने
अपना घोंसला यह कहकर
बदल दी की अब नहीं रहना
यहाँ ...अब कभी
भर भी न पायेंगे वो जगह
जहां छोटे-छोटे तिनके
बड़े हौसले को जन्म देती थी
जिन्होंने
हमेशा मजबूत घोंसले की नींव
बनाए थे
रिक्त रह जाएंगे
हमेशा के लिए-
मेरी...
खामोशी पर गुमसुम तुम अच्छे नहीं लगते
मेरे हँसने पर उदास भला कौन होगा यहाँ-
मैं जवां क्या हुआ इल्म की दुहाई दे दी गई
घर का मासूम चिराग था चराग़ बना दी गई
तुतलाते जुबां पर हुकमानो की दुहाई थी
सारा बाजार अपनी थी सब पराई हो गई
नखरे भी थे दुलार भी था रौब और प्यार भी था
घर वही लोग भी वही बस इल्म वक्त की बदल गई
कागज के टुकड़े के खातिर उम्र बेचनी पड़ रही है
बचपन छीनते हाथों में जवानी भी छीन सी गई है
बिखरते जज्बातों को मैं कील ठोक आऊंगा
लौटूंगा जब गांव फिर कभी शहर नहीं आऊंगा।
पराए के रिश्ते भी अपनों की तरह निभाते हैं लोग
शहर में अपने भी अपनों से नजर चुराते हैं लोग
ये माना की घर खूबसूरत हैं सुविधाएं अच्छे हैं
पर सच बताना पड़ोसी से रिश्ते कितने अच्छे हैं
तुम्हारे लोग तुम्हारे आने पर जैसे शोक मनाते हैं
और हम पड़ोसी के घर न जाएं बरसों हमें सुनाते हैं
अब संभालों शहर के सारे जिम्मेवारी खुद
न समझो अब हमें बेसहारा और लाचारी तुम
-
कितने घाव और भी लगाने हैं मुझे
दर्द का स्वाद खुद को चखाने है मुझे
मैं रिश्ता बड़े नाजों नाज से बनाया था
उन सबको एक-एक कर झुठलाने है मुझे-
एक दिन
लौटोगे तुम
उस जगह पर
जहां पर
कभी हम दोनों ने
काफी वक्त साथ
बिताया था
हैरान रह जाओगे तुम
वहां के हर चीज
आज भी नहीं बदलीं
वो पत्थर आज भी मोम से हैं
वो पेड़ आज भी छाया देती है
और गर्मी का मौसम
ठंडक भी
बहुत कुछ याद आयेंगे तुम्हें
और वो सारे रंग तुम्हें छू कर गुजरेगी
पर वक्त ज्यादा मत देना उस जगह को
वो पेड़, पत्थर, ठंडक और भी सब
कई सवाल पूछ बैठेंगे तुमसे...-
अपने समान बाँध आँखें गड़ाए बैठा हूं
जिधर चलना है रास्ता निकाल आया हुं
हुआ ये है की सफर अकेला रहेगा मेरा
घर को अपनी जिम्मेदारी बता आया हूं-