सौरभ अश्क  
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Joined 16 August 2018


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भूलना इतना आसान होता है क्या
रंग को रंग से अलग करना होता है क्या
ना को जिद समझना होता है क्या
दिल को बर्बाद करना पड़ता है क्या
आवाज को कहीं गुम होना पड़ता है क्या
या फिर जीतेजी मर जाना पड़ता है क्या
क्या भूलना इतना आसान होता है क्या.....

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बहुत फिसले हैं तुम्हारे जज्बात और किरदार
बहुत साफ-साफ दिखे तुम दूर होने के बाद
आहिस्ता कह! कोई सुन ने ले तुम्हारी बात
की झूठ भी जब कहते हो लगते हैं जज्बात

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बिखरे से इस जुस्तजू में तुम्हारा होना जरूरी है
मुनासिब नहीं की आंसू निकले पर रोना जरूरी है
ये तन्हाई ये रुसवा ये दौलत सब तुम्हारे ही दिए हैं
और तुम जाते हुए ये कहते हो कि भूल जाऊं तुम्हें

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कैसा इश्क रहा होगा वतन से उस युवा का
की उम्र भी आड़े न आ सकी फांसी के रास्ते
लहू तो जम गया होगा उस मां की कोख का
बेटा निछावर कर दिया जिसने वतन के वास्ते

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पत्ते
जो छूट गए
पेड़ के डाल से
जमीं पर बिखरा
पड़ा रहा
राहों के
न जाने कितने
पांव
चढ़ते गए उसके
जिस्म पर
फिर हवा
उसे दूर उड़ा कर
दूर कर दिया
पेड़ से
ऐसे ही न जाने कितने
यादें जो तेरे पैरों से लग कर
हर रोज टूटते होंगे
और एक शख्स
हर रोज मरकर भी
मौत की सजा सुनती होगी...

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कमरे की बत्ती
अब नही जलती
और जलाना भी नहीं
चाहता
रौशनी हमेशा तेरे होने का
भ्रम देता है मुझे
या कहूं की रौशनी
अब खलती है मुझे
ये अंधेरे बड़े काम के हैं
तुम्हारे साथ के हर बात
इससे करता हूं
और कोई देखता भी नहीं मुझे
कभी रौशनी चली जाए तो
कमरे में
कुछ देर ठहरना
सायद अँधेरा तुम्हें मेरे होने का
गवाही देगा...

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जिनके बोल थे की जगह तुम्हारा कोई ले नहीं सकता
हाल ये है की मुझे छोड़ हर एक के गले लगती है वो

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बहुत से यादें
लौट जा रही है
बहुत से गम
दूर जा रहे हैं
उन गमों का
उन यादों का
कहां परवाह
तुम्हें
वो तो मेरे साथ
हर रोज
आंखों के करीब से
गुजरता है
जहां तुम हंसते
सजते-सवरते-फिरते
गुजरते हो
और मैं ...दूर-बहुत-दूर से
टकटकी बांधे
अपने गीले गालों को
पोंछ कर
तुम्हें जाता देखता हूं
हां... बहुत हिम्मत चाहिए होता है मुझे
इन आंखों से तुम्हें ओझल करने में
और मैं हर रोज नाकाम बादलों की तरह
टूट जाता हूं...

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लताएं
अपने रास्तों पर
बढ़ने को
जकड़ते हैं
पेड़ के तने
अपने छोटे-छोटे
जड़ों से...
जहां नए कोपले
उग आती है
मानो उसे
पेड़ के स्नेह ने
उगने को
और फिर बढ़ने को
उत्सुक किया हो
और फैल जाती हैं
लताएं पेड़ पर
इस तरह से
की आखिरी में
पेड़ होकर भी पेड़ नहीं
सिर्फ लताएं दिखते हैं
और एक दिन
पेड़ खो देती है
अपना अस्तित्व....
ठीक तुम भी
उसी लता की तरह हो
जो मुझसे मेरा अस्तित्व
छीन रहा है...

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बदल जाएंगी गवाही उसके घर जाने के बाद
मुहब्बत की तरबियत यहां उतर जाने के बाद
किस्तों में फिर बेवफाई करती जाएंगी वो अश्क
हश्र होगा मेरा एक दिन नाकाम मुहब्बत के बाद

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