तुम मेरी बात मानो , चले जाओ
तुम भी ख़ाख डालो , चले जाओ
एक आँसू जाया ना करो मुझ पे
दरवाज़े पे फूल रखो , चले जाओ
मैं लाश हूँ मुझे क़ब्र में ही रहने दो
कमरे के बाहर फ़ातिया पढ़ो, चले जाओ
हमने डाल ली हैं तन्हाईयों की आदत
तुम भी काम निकालो , चले जाओ
अब कोई फर्क नही पड़ता मुझ को
तुम मेरे साथ रहो या चले जाओ-
लगता है फुर्सत में है..
नौसिखिया है साहब्, भूल चूक माफ़
और कुछ अच्छा दिख ज... read more
वो कर के हमें अपनी रौशनी से दूर
कहता है चले जाओ मेरी जिंदगी से दूर
मैं रहता ही नही अब अपने भी साथ
मैं हूँ अब दर ओ दीवार की छतरी से दूर
मैं बैठा हूँ उसके वादों की लाशों के पास
कथनी तड़प रही है उसकी करनी से दूर
सभी को बिछाने हैं फूल कदमों में
सभी को करने है फूल तितली से दूर
मसअले तब जहाँ थे, अब भी वही हैं
हर आदमी खड़ा है हर आदमी से दूर-
ख़्वाब छीन कर, नींदों की ज़रूरत पूछने लग जाते हैं
क़त्ल करने से पहले अक्शर तबियत पूछने लग जाते हैं
देर से ही सही पर इसलिए बनो, के एक वक्त के बाद
ख़ैरियत पूछने वाले ही हैसियत पूछने लग जाते हैं-
एक मुसाफ़िर से मेरी रात मिले
आँख लग जाए, और आँख मिले
बारिशों को पी ले अंधेरे जंगलों के
दरख़्त भीगी भी रहे और आग मिले
ना मिले किसी का लहज़ा उससे
ना ही किसी से उसका नाम मिले
सरों पे हो हमारे आसमाँ के छत
और मेरे सामने चाँद से चाँद मिले
मैं हाथ थामे रहूं और वक़्त जम जाए
हम मिले तो लगे मुद्दतों के बाद मिले
मैं महफ़िलों में ढूंढ़ता रहूं एक शख्स
के वो लब मिलें और दाद मिले-
ग़रीब कमाने का ज़रिया तलाशते है
सहराओं में जैसे दरिया तलाशते है
हम फ़क़त इश्क़ में बच्चों सा सोचे
वो जो सपनों में परियां तलाशते है
सोते है तेरी याद के साथ, जागे तो
तेरी ख़ुशबू ए ज़ारियाँ तलाशते है
कुल्हाड़ी लिए फ़िरते हैं वो बाग में
हम् जंगलों में कलियाँ तलाशते है
तालाश रुकी थी उसे देख कर तब
अब हर चहरे में दुनिया तलाशते है
मर कर भी कहाँ सुक़ून है सौरभ
अस्थियाँ तक नदियाँ तलाशते है-
पैसा आते ही इंसा क्या से क्या हो जाता है
पैसा हो तो आदमी शहर का बड़ा हो जाता है
पैसेवालों के चहरे कभी एक से नही होतें
पैसा कभी गुलाबी, तो कभी हरा हो जाता है
खेलों को ज़िंदा रखिये मासूमियत के साथ
पैसा खेल में मिलता है तो जुआ हो जाता है
भूल जाते हैं पैसों से ज़िन्दगी ख़रीदने में लोग
के एक वक्त के बाद दुआ ही दबा हो जाता है
पैसों में जाती हैं उम्रें, पैसा रिश्तो को खाता है
पैसों की आती लकड़ी, पैसा धुआँ हो जाता है-
कैसे रखे खुद पे कोई काबू रातों को
के निकल ही आते हैं आँसू रातों को
इतना भारी है कुछ सपनों का बोझ
सर रखने तक से दुख जाते है बाजू रातों को-
खुल जाती अग़र वो खिड़की तो अच्छा था
हम पे भी अग़र पड़ती रौशनी तो अच्छा था
उम्र भर निकालते हैं, सभी में नुख्स वे लोग,
जो ज़नाज़े पे कहते हैं के आदमी तो अच्छा था
एक ही मसअला है के किनारों पे फेंक देती है
वरना खुद्खुशी के लिए पानी तो अच्छा था
किसी इंसा के पीछे भागना अच्छा नही सौरव
कर लेते थोड़ी खुदा की बन्दगी तो अच्छा था
पेड़ो ने तो बताया था के बाग जलने वाली है
वक़्त रहते उड़ जाती तितली तो अच्छा था
घेर रखा था ताउम्र उदासियों ने हमको
वरना कहने को ज़िन्दगी तो अच्छा था-
यूँ तो हमने ताउम्र इबादत नही की
मग़र मज़हब के नाम पे तिज़ारत नही की
रास्ता रास नही आया हमें मुर्शीद का
सो हम भी लौट आये, दहसत नही की
इस क़दर दिए हैं हमनें वफ़ा के सबूत
के फिर किसी से भी मोहब्बत नही की
जिस हाल छोड़ा था उसी हाल रखा उसको
हमने अभी तक दिल की मरम्मत नही की
हर बार फेरें हैं दरिया ने सपनो पे पानी
हर बार नींदों ने किनारों की इज़्ज़त नही की
तुम हो के रास्ते, ठिकाने, चेहरे बदल लिए
हमने नंबर बदलने की भी मेहनत नही की-
ये जमाने वाले हमें यूँ ज़िन्दा रखने में लगे हैं
के जैसे पिंजड़े में एक परिंदा रखने में लगे हैं
इस उम्मीद में के वो आकर सजायेगा एक रोज
हम हैं के इस कमरे को गंदा रखने में लगे हैं
ये है सियासत , यहाँ अहल - ए - खुदा
अपने बंदों को ही अंधा रखने में लगे हैं
सभी लगे हैं बनाने में अपने सपनो का शहर
हम हैं के क़िरदार को उम्दा रखने में लगे हैं
ये वही लोग हैं जिन्होंने खोले थे कभी पावँ से जंजीर
ये वही लोग हैं जो अब गले मे फंदा रखने में लगे हैं-