पाकीजा
सुनो ना एक दिन सुनहरी रोशनी वाली सुबह के आगोश में
हौले से मेरे माथे को छूकर
रोशनी के उजालों से भरकर
मेरी रूह को पाकीजा कर दो।
गुलाबी सी उस जहां में
तुम ले चलो ना हाथों को हाथों लेकर
फिर मेरी नसों को झंकार देकर
मेरे दिल को पाकीजा कर दो।
मुझे अपनी काली घनी सी जुल्फों में
कैद तो कर ही चुकी पर
इस बार उस कैद को अपनी मोहब्बत से
जन्नत सा पाकीजा कर दो।
आ जाओ ना और भर लो अपनी बाहों में
और कह दो ना जो कहती हो हौले से लिपट के अक्सर
की मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करती हूं और उन लब्जो से
मेरे जिस्म को पाकीजा कर दो।
समा जाने दो जानां खुद को मुझ में
और फिर मुझको मिला दो इस कदर
कि अपने इश्क़ की खुशबू से
पूरी दुनिया को पाकीजा कर दो।
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An immotional writer.....Reader.... .. Rebel...
Quite unconventional..... read more
दस्तक
आज फिर दिल की दस्तक से
परेशान हो रहा हूं।
अंधेर में मैं बैठा ,
कोशिशें बेरंग कर रहा हूं।।
तन्हाइयो में खोया
आंसू बहा रहा हूं
ना चैन आ रहा है,
ना सो ही पा रहा हूं।।
मेरे गुनाह मुझको बेहद सता रहे हैं।
बेताब कश्तियों सा गोता मैं खा रहा हूं।।
ये कल कि बात है लगती ,
सोया था सब्र से मैं,
थक ऐसे मैं गया हूं,
जैसे बरसों से जग रहा हूं।
तरसा हूं, फिर से ऐसे ,जैसे कोई तमन्ना,
एक तारे कि तरह ही आसमां से गिर रहा हूं।।
जुनू बेपनाह फिर से तलबगार हो रही है,
सर्द दिल में आज फिर से शोला जला रहा हूं।।
भरी महफिल में आज दिल से,
जिद्द की दरख्वास्त कर रहा हूं।
मेरा बायान छोड़ो, तुम ही मुझे बताओ
जी मैं रहा हूं या फिर बेजान हो रहा हूं।।
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तुम्हारी मुस्कुराहट पर जां निसार करता हूं।
उस एक हसीं चेहरे के लिए दिन रात एक करता हूं।।
तुम्हारे मुस्कुराने के खनकते स्वर की खातिर,
जमाने का क्या कहूं छोड़ो, खुद को भी भुल आता हूं।।
तुम्हारी खुबसूरती बयां करने की नाकाम कोशिशें करता हूं।
चेहरे के उस सांचे को आंखे मूंद कर महसूस करता हूं।।
ये कल की बात लगती है,जब मैंने छुआ तुमको,
मगर हर पल तुम्हारी चाहत में जागता ना सोता हूं।।
ये कविता प्यार को मेरे प्रकट तो कर नहीं सकता।
उस समंदर के अतल तल को कैसे माप ये सकता।।
मगर हर रोज तुमसे प्यार जताना चाहता हूं मैं,
भले हमारे आसमा को बताने की जरूरत हो नहीं सकता।।
तुम्हारी रेशमी जुल्फों की छाया में मुझको सदा रहना।
मेरा सौभाग्य है उन झीलों से नयन में देखते रहना।।
तुम्हारे फूल से कोमल होठों की कसम मुझको,
तुम्हारे कमल से हाथों को है हरदम थाम के रहना।।
जिसे दिल ढूंढ़ता था अबतक,वो मेरा अंश तुम ही हो।
मेरी धड़कन की कंपन का अहसास तुम ही हो।।
तुम्हारा हाथ थामा है रहूंगा साथ हरदम मैं,
तुम्हारी रग रग में बहता हूं,मेरी रग रग में तुम ही हो।।-
मैं जनक नंदिनी सीता हूं,मेरे कुछ हैं प्रश्न अटल!
युगों युगों से दबी घुटीआज उठी हूं आत्मप्रबल!!
मैं जनकनंदिनी सीता हूं
मैं महा धनुर्धर की केवल पत्नी नहीं;स्वयं हूं एक कुशल योद्धा!
मिथिला के दरबार की तो रही हूं मैं मणिकर्ण सदा!!
मैं जनक नंदिनी सीता हूं।
तो फ़िर क्यों पग बांध के मैं,रह जाउं लक्ष्मण रेखा में!
क्यों प्रश्न उठें मेरे पर हीधर्मविद्दों की परिभाषा में!!
क्या मैं ही युगों युगों तक धर्म का भार उठाऊंगी।
मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाते और कोईमैं तो बस अबला कही जाउंगी।
मैं जनक नंदिनी सीता हूं।
क्या कर्तव्यों के विश्लेषण को एकतरफा ही देखा जाएगा,
मेरे अधिकारों की बलि से ही क्या ये समाज स्थिर रह पायेगा।
कब तक गैर के प्रश्नों को सुनकर रघुनंदन, मुझको वन में भेजेंगे।
ऐसा किस देवी का दुर्भाग्य, हे प्रभु कितना मेरे चरित्र को तोलेंगे।
मैं जनक नंदिनी सीता हूं।
बहुत हुआ,अब और नहीं वैदेही के देह की अग्निपरीक्षा होगी।
एक स्त्री के तम से प्रज्ज्वलित क्रांति के ज्योति की ज्वाला होगी।
उत्तर वो अब दे चुकी बहुत,प्रत्युत्तर अब वह मांगेगी।
अर्धांगिनी के अधिकारों को सुनने वाला रामराज्य कभी तो आएगी।
अब अग्नि परीक्षा प्रेम की ,श्री राम एक बार देवेंगे।
धर्म के विकट कसौटी पर आज एक पुरुष का धैर्य परखेंगे।
सभ्यता के अंतहीन इतिहास में स्त्री के पूर्ण समर्पण का
एक गौरवशाली अध्याय नवीन रामायण में लिखेंगे।
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यूं हीं
हर बार, हर बात कहने को यूं ही।
मैं बेशक तुम्हें याद करता हूं यूं ही।।
आसमां के नीले सीमा के आगे
तुम्हें देखता रहता हूं मैं यूं ही।।
उन काली घटाओं में उमरती घुमड़ती
तुम्हारे महकते सें जुल्फों को यूं हीं।।
उलझ के जब इतरा रहे उन उंगलियों
से फिसल के शरारत जो करते वो यूं ही।।
वो हर एक हसीं कि खिलखिलाती सी जूही।
उन मोती के लडियो की रुनझुन को यूं ही।।
मैं बुला के सिरहाने में बैठा के रातों को
उनिंदा सा बैठा बातें करता हूं यू हीं।।
उन गुलाबी सी होठों से प्यारी सी बोली।
खनकती हुई चंद शब्दों को यूं हीं।।
छिपा के, सजा के, किसी पन्ने में लिख के
हमेशा के लिए संजो लेता हूं यूं ही।।
दीवानी सी उस शाम के धुंधलके में।
तुम्हारी हथेली को हाथों ले यूं ही।।
मैं बैठा तुम्हारी गजलों को सुनता।
उसे गुनगुनाता कभी याद करके यूं ही।।
हमारी अधूरी कहानी के किस्से।
खुद ही हूं लिखता, पढ़ता हूं यूं ही।।
उस एक मोड़ पर जो रुक सी गई है,
मैं उस मोड़ पर भटक आता हूं यूं ही।।
दौड़ती सी बेतहाशा अर्थ की जिन्दगी में।
तुम्हें प्यार करता हूं मैं यूं हीं।।
चांदनी रातों में तारों को गिन गिन
यादों को अक्सर संजोता हूं यू ही।।
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ना जाने क्यों ये नींद नहीं आती मुझे,
ना जाने क्यों तुम्हारे सवाल चैन ले जाते हैं मे रे
बस बात इतनी सी है कि मैं तुम्हें देखता हर अक्स में बेशक,
ना जाने क्यों इतना सोचता हूं, तुम्हारे हर एक जिक्र को लब्जों में मेरे।।।
ना जाने क्यों ये खयाल मुझे बरबक्स आता है,
की तुम्हारी अहमियत क्या है जिन्दगी में मेरे
ना जाने क्यो ये सवाल पूछना और कहना
भी ख़ुद ही जला दे ता है दिल को मेरे।
शायद मैं ऐसा ना होता,अगर हर दिन को उजाले से ना भरती तुम मेरे
मैं ,मैं नहीं होता मेरे दोस्त
अगर तुम्हारे साथ
होने का यकीन साथ ना होता मेरे।।
जाने क्यों तुम ये सोचती हो, ओर फिर आधी सी कहती हो सामने मेरे
की अपने होने की वजह पर ही शक कर इस कहानी को करती हो परे।।
ना जाने क्यों रोती नहीं हो तुम भला,
पता है खुद ही सब झेल के सामने ना आंसू लाती मेरे ।
क्यों क्यों क्यों,तुम ना कह पाती हो
हर आश, हर दर्द को तुम सामने मेरे।।
आज से जब भी मन में ये प्रश्न आए तेरे,
पलट के देख लेना,"भीगे" नयनों में मेरे।।
मेरे मुस्कान को बस भावनाओं से स्पर्श कर तुम ,
समझ जाओगी अपने होने के वजह और अस्तित्व को तुम।।
वजह मैं तो बस धूल के एक अंश सा हूं, तुम्हारे होने की अद्भुत कारणों में तुच्छ सा हूं,
परंतु तुम खुद को ना कमजोर ना
ही अकेला समझना,
तुम्हारे साथ हर पल , हाथ थामे मित्र सा हूं।।-
There's a very small difference in that' Love,,,
She gives her importance according to her terms And conditions,
He gives her importance without any terms and conditions-
क्यों
कभी कभी ख़ुद से ये सवाल करता हूं!
क्यों मैं इतना बेचैन होता हूं?
अपने होने कि असलियत को दरकिनार कर
क्यों हर पल तुम्हारी ख़्वाबों में रहता हूं??
आज इस पल की सारी खुशियों को फीका कर
क्यों तुम्हारे साथ रोने की हसरत करता हूं?
खिलखिलाती हुई उन चंद पलों को
क्यों खुद से ज्यादा मैं प्यार करता हूं??
तुमसे कही हर बात याद है मुझे ,छोड़ो
पर क्यों तुम्हारी कही हर बात याद करता हूं?
लब्जो के नाजुक तराजू में तोल के
ना जाने क्या क्या हिसाब करता रहता हूं?
रात हो गई जमाने के लिए
पर क्यों मैं तन्हाई में जागा रहता हूं।
जाम ना छूने की कसम की "कसम" है मुझे
बस तुम्हारे नशे में डूबा रहता हूं।।
तुमसे हर रोज बात कर ही लेता हूं।
पर ना जाने किस इंतेज़ार की बेसब्री में चूर रहता हूं!
पल दो पल की जिंदगी की कहानी में
तुमको क्यों इश्क़ ए बेपनाह करता हूं!!
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मैं उड़ता हुआ सा एक बादल हूं।
तुम मेरी विश्वास का हिमालय हो।।
मैं तुम्हारी हसरतों का परखा हुआ साथी हूं।
तुम मेरी मुस्कुराहट का एक शायराना चित्र हो।।-
काश
काश ऐसा होता,
कि मैं तुम्हारे साथचांदनी रात में बेफिक्र से बैठा होता
कुछ बेवजह सा, और
तुम्हारे मेरे दरम्यान वक्त ठहर सा जाता, ।।
काश ऐसी कोई धुन बंसी की
कहीं दूर से कोई बजा रहा होता।।
और तुम आंखें मूंद के उसे महसूस करती
जैसे बारिश की पहली फुहार को किसलय करता।
और काश उसी धुन पर मैं कोई
नगमा छेड़ता, मुख्तसर
सी दरख़्वास्त करता
तुम्हें हर्फ दर हर्फ पढ़ता।।।
काश हां काश, मेरे नज़रों मे
इश्क़ के समन्दर को तुम्हारा कल्ब समझता।।
मेरे दिल के कहे अनकहे किस्सों को
देख एक सैलाब जोर करता।।
काश ऐ काश कहीं ऐसा होता,
की सारे सवालों और उलझनों को परे रख
तुम्हारा वो वक्त मेरे और
सिर्फ़ मेरे लिए होता।।
काश तेरे हाथों में मेरा हाथ होता,
और यमुनो - ताज का नज़ारा होता,
मैं तो हूं ही पर काश तेरे साथ
मेरा नाम होता।
काश ए खुदा, क्या खूब होता
अगर ये ख़्वाब हकीक़त होता।।
मेरे नजरों में तेरा पीर और ज़िक्र
और आसमानी होता।।
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