Saurav Das   (S. D)
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Music lover and peace seeker
Joined 28 May 2018


Music lover and peace seeker
Joined 28 May 2018
12 MAY 2019 AT 9:43

कितनी भी कमाई कर लूँ, अय माँ तेरा कर्ज़दार रहूँगा।
तूने अपनी जरूरतें नीलाम कर मेरे शौख खरीदे हैं।

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24 APR 2019 AT 21:57

मुझे उसकी हुकूमत में जीना था,
था उसे मेरी बाहों की सल्तनत में मरना।
पर जब चुनाव का वक़्त आया
समाज के वही चार ज्ञानी जन
भारी मतों से विजयी हो गए।

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19 APR 2019 AT 13:41

Read in the caption.

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12 APR 2019 AT 14:34

कहीं से निकले हो तो कहीं को पहुंचोगे,
रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी का कितना सोचोगे।
चलते रहो कि चलने का अपना मज़ा है,
मंजिल कब तक मिलेगी वो रब़ की रज़ा है।

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11 APR 2019 AT 7:13

उफ्फ ये ढलती शाम की रंगत,
और उसपे ये शाखों की बग़ावत,
हवाएं भी चली कुछ तेज़-मद्धम,
संभाले कैसे कोई दिल को अय "भूषण"

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8 APR 2019 AT 21:48

उलटी तरफ़ से पढ़ना तुम
मेरी किताब-ए-ज़िन्दगी,
बस यही एक ज़रिया है के
तेरे होठों पर हसी आए।

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4 APR 2019 AT 10:49

अबके साल सबकुछ पहले सा होगा।
गर्मियां भी वैसी ही झुलसाने वाली होगी,
नदियां फ़िर सूख कर नाले बनेंगी,
बिजली के मीटर मैराथन करेंगे,
Glucose और छतरी की मांग बढ़ेगी,
फ़िर भी दो चार दर्जन मानुस चल बसेंगे।
जलस्तर पाताल जाएगा छुट्टियों में,
पर जो नहीं होगा वो ये है कि,
वो जो कोयल आती थी ना हर साल!
अबके नहीं आएगी।
गीत उसके सुन नहीं पाऊंगा,
बड़ा मलाल रहेगा इसका मुझे।
वो आम का बगीचा,
जो उसका नैहर हुआ करता था,
अब तो वो कट चुका है।
क्यूँ कर आए फिर वो?
हर साल टिकोलों को
अपना मधुर गीत सुनाकर
मीठा कर जाती थी।
बादल भी इस प्रेम को देख
खुशी से रो पड़ता था।
प्यासी धरा अमृत पाकर
करोड़ो दुआएं देती थी।
तब तो जाकर मुह में
घुलते थे मिश्री जैसे
वो बम्बई मालदा और गुलाबख़ास।
पर अब क्या फायदा सोच कर!
जो नहीं करना था वो तो कर गए।
अब कोयल ना ही आए तो अच्छा है।
और आए भी तो किसलिए?
रस तान गाए भी तो किसलिए?
हम मतलबी बेफिकरों के लिए!
नहीं, कभी नहीं, बिल्कुल भी नहीं।

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31 MAR 2019 AT 8:30

दफ़न हैं कई सारे जज़्बात यहां पर ,
साला ये दिल दिल नहीं कब्रिस्तान है।

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31 MAR 2019 AT 7:54

'किस्मत' रूठी रूठी सी र‍हती है।
बदगुमान 'वक़्त' मनाता भी नहीं।
"माँ - बाप" के इस शीत युद्ध में,
जाने मैं मासूम कब तक पिसता रहूंगा!

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30 MAR 2019 AT 7:44

पतझड़ में फूल नहीं खिलते,
पर तरु जीना नहीं भुला देता।
उन विषम परिस्थितियों में भी वो,
वसुधा-रस पीना नहीं भुला देता।
उसे ज्ञात है ऋतुएं इस जग की,
एक जैसी कभी नहीं र‍हती।
बयार समय की कभी कहीं,
बस उल्टी धार नहीं बहती।
बसंत तो आती है आएगी ही,
तो धीरज काहे को हारे वो।
क्यूँ कर जल का त्याग करे,
क्यूँ अपना जीवन वारे वो।
मनुज तू और वो वृक्ष वहां,
दोनों के दोनों असहाय हैं।
विफल आज दोनों ही हैं,
और दोनों ही मुरझाए हैं।
तेरा प्रयत्न और वसुधा-जल,
एक दूजे का प्रयाय है।
वो त्याग नहीं रहा जल को,
तो तू क्यू प्रयत्न भुलाए है।
धीरज धर ले बस कुछ दिन,
बसंत तो अब आने को है।
पुष्पित होगा तू भी इक दिन,
खुशियां अब छाने को है।
पहले सपनों को पूरा कर,
फ़िर चाहे नयन सुला लेना।
मेहकेगा कुछ दिन में बेशक,
बस 'जल' का त्याग भुला देना ।।

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