और फ़िर समाज की बनाई रणनीति और आडंबर खा गए अंदर के उस कलाकर को जो यूं ही लिख दिया था करता था बेचैनी के किस्से.. अब शब्द नही फूटते एक फूल को देखकर, अब कलम दम तोड देती है एक मुस्कुराता चेहरा देख कर और स्याही पी गई वो सारे शब्द जो चीख कर मुझे सबको सुनाने थे.. गुलज़ार साहब ने कहा है.. "बेचैन रहते हैं वो लोग जिन्हें सब याद रहता है"
और फ़िर पितृसत्तात्मकता नाम के बड़े पेड़ पर लगी चींटियां मेरे कंधो पर कई बार यूं ही आ गिरती हैं। मैं कितनी ही कोशिश कर लूं पर अंत तक एक चींटी मुझे काट लेती है। इसकी टीस बहुत दिनों तक मेरे मन में गूंजती है। मैं इस टीस को इंद्रधनुष में बदल देना चाहता हूं पर जब जब तक मैं इसका रंग सोच पाऊं मैं शुन्य से मौन का सफर कई बार तय कर चुका होता हूं।
मुझसे जब भी कोई पूछता है की ये वाली लाइन किसके लिए लिखी या फिर वो वाली तो मैं कला है, साहित्य है या ख्याल है सिर्फ, कह देता हूँ। लेकिन मैं जानता हूँ की ये किसके लिए है। मेरी दुविधा ये है की मैं नहीं जानता की मेरे शरीर में "मैं" कहाँ है ताकि मैं पूछ पाऊं की सौरभ तूने किसके लिए लिखी है ये ? कभी कभी रात को जब नींद नहीं आती और मैं अपनी बालकनी में खड़ा होकर चाँद देखता हूँ तब लगता की मेरा "मैं" मेरी रीढ़ में है और मुझसे ज्यादा बात करना पसंद नहीं उसे। कभी बात हुई तो पूछूंगा ऐसे छुप कर क्यों रहते हो ? आमने सामने की बात करो। अच्छा बताओ जब उसने पूछा की मेरे बारे में क्या सोचते हो तो कह क्यों नहीं पाए? क्या ? वही जो सच है।
मैं बहुत झूठा और फरेब इंसान हूँ। मैं हर रोज उठते ही " अच्छा और ईमानदार" नाम के कपड़े पहन लेता हूँ। हसीं के जूते पैरो में डाल कर निकल जाता हूँ । फिर जो मिलता है मेरे कपड़ो की तारीफ करता है। पर असल में मैं हारा हुआ और मक्कार शख्श हूँ। मैंने आज तक कुछ नहीं जीता। मैं रास्ते में चलते रोड पर भीख़ मांगते देखा गया हूँ, पर उसमे भी हारा हूँ। मैंने इतने साल एक ढोंग रचा है। खुद के लिए खुद से छुपा कर। मेरे हाथ में रेत है और रेत में मरकरी। हाथ में कुछ नहीं रुकता। बस मरकरी की तासीर और भीख में मिले दो गुड़हल के फूल। यह कह कर उसने अपनी सिगरेट जलाई और धुएं में उसका चहरा मैं देख नहीं पाया।।
एक अपना सा शख्स पराए शहर में रहता है उस से कभी मिला नहीं, तो आंखों में कैसे रहता है यायावर सी उसकी बातें, उसका लहजा उसका मन अय्यार है वो सबका, मुझसे खामोश ही अक्सर रहता है।
ढलती शाम को एक कोने में उजाले को सिमटा दिया गया आसमां से परिंदो का पहरा हटा दिया गया छोटे छोटे किरदार रहे मेरे कई कहानियों में, फिर पुराना होता गया और मिटा दिया गया।।
शहर भर में पागल से घूम रहें हैं आशिक तेरे, तू आंचल लहरा कर इन्हे शांत कर... की, मिट गए कुछ खाक में तेरे दीदार को तू कुछ को बचा ले..फलक से नीचे आ, उनसे बात कर।।