थोड़ी भंग औ थोड़ा रंग
हो मस्ती औ हो हुड़दंग
यारों का साथ हो संग
होए होली मस्त मलंग
गलियों में उड़े गुब्बारे
गुलाल के उड़े फव्वारे
पिचकारी की बौछारें
धुले क्लेश द्वेष सारे
मन मन मे उठे उमंग
होए होली मस्त मलंग-
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रंग दो तन रंग दो मन
रंग दो धरा रंग दो गगन
आया होली का पर्व पावन
शरारती पिचकारी मस्त गुब्बारे
अंबर तक उड़ते गुलाली फव्वारे
चढ़ आया सब पर नव यौवन
आया होली का पर्व पावन
गली गली गाल गाल फिर फिर
अल्हड आवारा हुआ है अबीर
फाग में हो रहा मन फागन
आया होली का पर्व पावन
रंग दो तन रंग दो मन
रंग दो धरा रंग दो गगन
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तो क्या जो अवरोध बड़े हैं
बन दीवार राह रोके अड़े हैं
सपने इन सब से बहुत बड़े हैं
करने पूरे हर दीवार ये चढ़े हैं
बिछी है बिसात हो रहा घात
कोशिशों से हर मुश्किल काट
शूर वही हैं जो हर पल लड़े हैं
सपने इन सब से बहुत बड़े हैं
पैरों की बेड़ी हाथ की ये जंजीर
काटती इन्हे हौसलों की शमशीर
ये पल पल पग पग आगे बढ़े हैं
सपने इन सब से बहुत बड़े हैं
तो क्या जो व्यथा विशाल है
भय की भला क्या मजाल है
हर व्यथा हर भय लाँघ चढ़े हैं
सपने इन सब से बहुत बड़े हैं-
दिल से अच्छे रहने दो जी, मन के सच्चे रहने दो जी
बड़े हुए तो क्या हुआ, थोड़े अभी बच्चे रहने दो जी
थोड़ा लड़ लें, थोड़ा झगड़ लें, जी भर हठ कर लें
ज़िद्द कर लें, और ज़िद्द की भी पूरी हद कर लें
पर इन में मासूमियत के लच्छे दर लच्छे रहने दो जी
बड़े हुए तो क्या हुआ, थोड़े अभी बच्चे रहने दो जी
कोई जो संग हो ले तो खुल के खिलखिला लें
कोई जो हाथ थाम ले तो जी भर के मुस्कुरा लें
रंग बिखेरें, गंध बिखेरें, फूल के ये गुच्छे रहने दो जी
बड़े हुए तो क्या हुआ, थोड़े अभी बच्चे रहने दो जी
जो कुछ नया देखें सुनें तो मन उथल पुथल जाए
नया करने, नया सीखने को मन मचल मचल जाए
वो नाज़ुक नाज़ुक जिज्ञासा के भी चर्चे रहने दो जी
बड़े हुए तो क्या हुआ, थोड़े अभी बच्चे रहने दो जी
दिल से अच्छे रहने दो जी, मन के सच्चे रहने दो जी
बड़े हुए तो क्या हुआ, थोड़े अभी बच्चे रहने दो जी-
गिन गिन के जो कांटें बिछाए तुमने, वो चुने हमने
उन कांटों की सुई बना, ख्वाब फूलों के बुने हमने-
लाल लाल हो गई धरा
लाल लाल फिर बही हवा
पानी भी नदी का लाल हुआ
जब लाल देश का लाल हुआ
गलवन वाली घाटी गाए
बर्फ से सनी माटी गाए
तीखे तार खेली छाती गाए
दुश्मन का कैसा बुरा हाल हुआ
जब लाल देश का लाल हुआ
ड्रैगन छल छुपा कर लाया
सीमा पर कपटी नजर उठाया
सोते सिंह को जब उकसाया
फिर शीश उसका हलाल हुआ
जब लाल देश का लाल हुआ
धन्य वसुधा धन्य वो गगन है
धन्य प्रसुता धन्य पितृ चरण है
धन्य गांव धन्य घर आंगन है
शोर्य से गर्वित भारत भाल हुआ
जब लाल देश का लाल हुआ-
चांद ज़रा धीरे धीरे ढलना
रात ज़रा धीरे धीरे चलना
तप रहे हैं जिस्म आग में
कामाग्नी ज़रा धीरे जलना
शबनम के तार रात भर
प्रेम की धार रात भर
लबों का श्रंगार रात भर
योवन ज़रा धीरे बरसना
कामग्नी ज़रा धीरे जलना
पैरों को पैर साधते रहे
हाथों को हाथ बांधते रहे
मर्यादा इश्क़ की लांघते रहे
प्रेम रंग ज़रा धीरे चढ़ना
कामागनी ज़रा धीरे जलना-
कुंवारी हसरतें कोशिशों से मिलन में मद है
मंज़िल का उत्कर्ष मिलन के उन्माद पर है-
लिखना तो सीखा मैंने पर यूं ही बिक नहीं पाया
बाज़ार के मानकों पर दो पल भी टिक नहीं पाया
बिन सुने बिन पढ़े ही लोगों को मिली है दाद यहां
हमने कभी पर ऐसा श्रोता कोई रसिक नहीं पाया
दिल से जो लिखा हमने, वही हमने कंठ से गाया
किसी ने यहां कभी किस्मत से अधिक नहीं पाया
पथ पथरीला रहा ये पर चलता रहा अनवरत यहां
पथ हैरान है उसने अमूमन ऐसा पथिक नहीं पाया
सब बोले बाज़ार समझो, ये भी है व्यापार समझो
पर कलम स्वाभिमानी यूं शर्तों पे झुक नहीं पाया-