Saurabh Dwivedi   (सौरभ द्विवेदी)
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हर किरदार में इतना दम नहीं की मेरी कहानी में आ जाए
Joined 26 April 2018


हर किरदार में इतना दम नहीं की मेरी कहानी में आ जाए
Joined 26 April 2018
6 JUL AT 22:09

परेशान है जिनसे हजारों हज़ार लोग
मिले तो बताना कौन हैं वो चार लोग

रो भी नहीं सकते , मुस्कुराते भी नहीं
हम हैं ज़िन्दगी तेरे गुनाहगार लोग

रोज तन्हाई के दर पर सर पटकते हैं
दुनिया मे दिख रहे हैं जो खुद्दार लोग

ये दुनिया सबसे किस तरह पेश आई
अब घर में भी बन गए हैं बजार लोग

वो मशहूर शख़्स कल तन्हाई से मर गया
फेसबुक पर उसके दोस्त थे हज़ार लोग
- सौरभ द्विवेदी

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19 JUN AT 0:07

हमपर चुप्पी की तोहमत
चस्पा करने वालों ने देखा
उनके ज़िक्र पर
हम बातें कितनी सारी करते हैं

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17 JUN AT 20:15

उरूज़ , सर्फ़-ए-जाम न उरुस चाहिए
मुझे तेरे लिहाफ़ में परसुकूँ चाहिए

दुनिया-दर को मैंने रुखसत कर दिया
मेरा मसला तू है , मुझे तू चाहिए

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17 JUN AT 11:07

यूँ नहीं है कि तुम्हारे बाद दर नहीं खोजा
दर खोजा है बहुत मगर घर नहीं खोजा

तुम रोज मिलते हो हमें , तुम्हें  ख़बर नही
अंदर खोजा है तुम्हें बाहर नहीं खोजा

सुनते हैं गाहे-बगाहे किस्से रकीबों के
सुना है कि तुमने फिर शायर नहीं खोजा

खुद तसल्ली के लिए तुम्हें तलाशा है सौरभ
मिल ही जाओ कभी इस तरह नहीं खोजा

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26 MAY AT 21:41

उम्र रफ़्ता - रफ़्ता बढ़ रही है
अब अज़ीज़ों से बिछड़ रही है
शराब से किनारा कर रखा है मैंने
नशा 'चाह' है मुझे 'चाय' चढ़ रही है

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21 MAY AT 22:07

मेरे शहर के एक फ़कीर की बस फ़िक्र तख़्तो-ताज है
मगर बाहर से उसका होजरा कभी महल नहीं लगा

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20 MAY AT 23:40

फलदार शजर के तो सब ख़ैर- ख़्वाह है बहुत
मगर वो दरख़्त जिनपर कोई फल नहीं लगा

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15 MAY AT 22:40

रूबरू भी कांटा इंतज़ार का नहीं निकला
जीता हूँ मग़र खौफ़ हार का नहीं निकला

इक घर से उकता कर , जा और घर में बैठा है
मुतमईन हूँ मेरा शख़्स बाज़ार का नहीं निकला

इश्तिहार , चुटकुले , खुशामदें और क्या क्या
मगर  जो हादसा था अख़बार में नहीं निकला

ये भी बड़ी तसल्ली थी वो मुक्कदर में नहीं
ये गम अलहदा है वो मयार का नहीं निकला

ताल्लुक़ में दरवाज़ा न सही खिड़कियां तो हैं
शुक्र-ए-ख़ुदा तसव्वुर दीवार का नहीं निकला

'सौरभ' इशारा यारों पर है न अज़ीज़ों पर मेरे
मग़र ये ज़ख्म- तीर भी अघियार का नहीं निकला

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12 MAY AT 0:01

1 )
दुनिया किनारा करती है बुझे हुए दिए का तरह
मगर माँ मुझे आंख का तारा समझती है

2)
इक दिन सब ख़्वाब पूरे करके लिपटना है मुझे
मेरी ख़्वाहिश है रोते हुए माँ के हाथ चूमना

3 )
दुनिया बुलाती है मग़र मुझे इस बात का गम है
कि रशोई से अब माँ का इशारा क्यों नहीं आता

4)
नहीं सुननी पड़ेगी तुम्हें चाक साड़ी पर फब्तियां
माँ हम भी जब शहर जाकर कमाने लगेंगे

- सौरभ द्विवेदी

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1 MAY AT 13:36

गांव ,घर, ताल्ल़ुक , आबरू़ लुटाकर
मजबूर आएं हैं दो रोटियां कमाने शहर में



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