(एक लघुकथा ऐसी भी)
एकांत जैसा क़सबा था
उसमें लेखक जैसा मकान था
जिसका ना लेखक नाम था
उस मकान में दिल जैसा कमरा था
अधरो से किवाड़ बंद किया गया था
उसके अंदर बंदी भावना
विवेक के दरीचे से बाहरी दुनिया देखती,
सोचती, कहती खुद से
"ऐसा कोई नहीं दिख रहा
जो मुझे इस बंदीगृह से बाहर
निकाल सके या जिस तक अपनी
आवाज़ पहुँचा सकूँ" बस यही सोच कर
अंदर बंद रहती
उस बंदीगृह से भावना को
बाहर निकालने के लिए सच में कोई आया ही नहीं
ना ही कभी कपाट खुला
फिर एक दिन
(शेष अनुशीर्षक में.......)-
Saumya Deshmukh
(Saumya☮️)
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My profile, my creation, my Art💟
तुम क्या हो तुम्हें है पता, मायने... read more
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Joined 16 February 2018
26 AUG 2020 AT 0:46
25 AUG 2020 AT 10:30
वज़्न - 1222 1222 1222 1222
फिसल जाते है जो पग वो तो खुद घर्षण बढ़ा सकते
मगर टूटने से नाज़ुक कली बचे आख़िर बचे कैसे-
2 JUN 2020 AT 15:05
सीरत
और सूरत
के बीच होड़ तो
हम इंसानों में ही
होती है वरना
इन खूबसूरत
तितलियों की
सीरत कौन
जानता
है-
13 AUG 2020 AT 11:34
To perceive the truth
behind that eye
your comprehension
should be high-
1 AUG 2020 AT 17:56
'तुम्हें
अपनी जान से
बढ़कर चाहते हैं'
ये कहने वाले तो
बहुत मिले होंगे तुम्हें
मगर क्या कभी
किसी को देखा है?
अपने हिस्से का
निवाला भी
बिना तुम्हें ख़बर किए
चुपके से तुम्हारी थाली में
डालते हुए
जो अक्सर किया करती है
'माँ'-
30 JUL 2020 AT 22:52
इस
चाँद से
चेहरे पर मुस्कान
हमेशा बनी
रहे
तुम्हारी
क़लम की
धार निरंतर आगे
बढ़ती सजती
रहे
घर
आंगन में
खुशियों की धुन
हमेशा बजती
रहे
पूरी
हो हर
चाह तुम्हारी नई
बुलंदी छूती
रहे-