शब्द सजन -दर्शन पर दिगपाल छंद
हे कृष्ण आज विनती, मैं कर रही तुम्हीं से।
है तार- तार इज्जत ,टूटा हृदय यहीं से।
चीत्कार चीख निकली,साजन पड़ा जमीं पर।
खुशियाँ बिखेर मेरी, दुश्मन खड़ा वहीं पर।।
गीता सिखा रही है, अर्जुन जरा बताओ।
कैसा अधर्म छाया,उनको जरा सिखाओ।
है हौसला अगर तो ,हो युद्ध सामने से।
छिप- छिप करें लड़ाई,नहीं लाभ थामने से।।
जागो जरा सनातन,अब आज पग बढ़ाना ।
हो तुष्टिकरण जहांँ पर,उस नीति को मिटाना।
दर्शन यही कहे अब,है जोर में जमाना।
है दंड हाथ जिसके, सत्ता वही निभाना।।
जब मांँग ली जमीं को, खुद का वतन बसाया।
भारत किया विभाजन,फिर भी न चैन रास आया।
चोरी छिपे करेंगे, आतंक आतताई।
है नियत में खराबी, इज्जत न आज भाई।।
मुँह तोड़ कारवाई, है माँग भारती की।
फन सर्प का कुचलना,हो शान सारथी की।
हो शास्त्र संग नाता, मत शस्त्र भूल जाना।
शाला बने अखाड़ा, अभ्यास खूब पाना।।
सौदामिनी खरे दामिनी-
मिस्रा - उंगली उठने लगी दोस्ती पर।
अर्कान - फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा
मापनी- 212,212,212,2
काफ़िया - ई" की बन्दिश
रदीफ़ - पर
ग़ज़ल
दिनांक 24/04(25
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आग लगने लगे लगी दोस्ती पर।
आँच आने लगी जिंदगी पर।।
जब से तेरी पनाहों में आए।
उंगली उठने लगी आदमी पर।।
एक ही घर में रहना नहीं था,
बाँट डाला हमको जमीं पर।।
शख्स कमजोर क्यों पड़ गया है।
तर्स आने लगा है तुम्ही पर ।।
मानता ही नहीं दिल हमारा।
खार खाने लगा आदमी पर।।
प्यार की भाषा नहीं मानता है। रोश आने लगा दरिन्दगी पर।।
दर्द है दामिनी की लेखनी में।
शेर कैसे लिखूँ आशिकी पर।।
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स्वरचित मौलिक सृजन सौदामिनी खरे दामिनी रायसेन मध्यप्रदेश।-
विधाता छंद
1222-1222,1222-1222
शीर्षक -यात्री
यहाँ यात्री सभी कोई,नहीं मंजिल इसे जानो।
मिला है जन्म मानव का , बड़ा सौभाग्य तुम मानो।।
करो सब कर्म उत्तम तुम, नहीं खोटा करो जीवन।
चलो उनके निशानो पर,किया बलिदान है पावन।।
लुटाते ज़िन्दगी अपनी,लिया हैं हाथ में डंडा।
बढ़ाते शान जो जग में,उन्हींका मान है झंडा।।
सफल जीवन हुआ उनका, जिन्होंने मर्म यह जान।
विधाता ने किया पैदा, उसे ही मुँह दिखाना।।
फँसो क्यों मोह ममता में, करो मत काम तुम नीचे।
लगाया बाग जो तुमने,उसे ईमान से सींचे।।
किसी की लीं अगर आहें,नहीं आँसू से चुकाओगे।
करोगे काम जैसे तुम ,वहीं फल आज पाओगे।।
स्वरचित मौलिक सृजन सौदामिनी खरे दामिनी रायसेन मध्य प्रदेश।-
गीत
16/14
विषधर पलते आस्तीनों में,अब कैसे जान बचाओगे।
बोये बीज बबूलों के अब,आम कहाँ से खाओगे।।
भाई चारा रहे निभाते , छोड़ा सभी विवादों को।
निज हिस्से का दाना पानी,बाँट दिया बेगानों को।।
अस्तित्व पड़ा अब खतरे में,कैसे इसे बचाओगे।
विषधर पलते आस्तीनों में,अब कैसे जान बचाओगे।
धर्म पूछ कर मारा जिनको,दोष बताओ तुम उनका।
दे दी है कश्मीर जिन्होंने,नहीं बचाया है तिनका।।
अटल सत्य है कहे सनातन, हिन्दू राष्ट्र बनाओगे।
विषधर पलते आस्तीनों में,अब कैसे जान बचाओगे।
शिक्षा नीति सुधार माँगती, अब शस्त्र ज्ञान सिखलाएँ।
अग्निवीर घर -घर से निकले,सौर्य धरा पर दिखलाएँ।
महादेव का बाजे डंका, भारत में रह पाओगे।
विषधर पलते आस्तीनों में,अब कैसे जान बचाओगे।
सौदामिनी खरे दामिनी रायसेन मध्यप्रदेश-
सुप्रभात जय श्रीराम जय सनातन होली की हार्दिक शुभकामनाऐ 🪣🔴🟠🟡🟢🔵🟣🟤⚪⚫🔴🟠🟢🟥🟨🟩🟥🙏
दिनांक-14/03/2025
विधा- गीतिका छंद
2122-2122,2122-212
शीर्षक- होलिका जल गई
पर्व आया होलिका का,प्रेम मन सजने लगा।
याद रंगो की सजा कर ,थाल ले कोई भगा।।
सुर असुर के बैर मे जो, भूलकर संतान को।
लड़ रहा रिपु सम लडाई,रख रहा अभि मान को।।
योजना प्रहलाद बध की,पुत्र था उसका सगा।
ले भतीजा गोद मे वो, दे रही उसको दगा।।
जल गयी थी होलिका फिर, बच गया वह पा दुआ।
कर दिया रिश्ता कलंकित, एक थी ऐसी बुआ।।
भ्रात प्रेमी बहिन देखो , आज तक देखी कहीं।
त्यागता इतिहास उनको, नाम फिर लेता नहीं ।।
है कयाधू लाल अनुपम, भक्त नारायण कहे।
नाम है प्रहलाद अनुपम,जो परमभक्त उनके रहे।।
होलिका उत्सव सुहाना,रंग सब पर डालते।
भाव ले उत्कृष्ट मनमे, प्रेम हिय में पालते।।
लाल पीला और नीला,मल रहे हैं गाल पर।
दे रहे मिल कर बधाई, रंग सोहे भाल पर।।
स्वरचित मौलिक सृजन सौदामिनी खरे दामिनी रायसेन मध्यप्रदेश।-
विधा-चौपाई
शीर्षक-जब भी कोई गीत लिखूँगी ।
जब भी कोई गीत लिखूँगी।
तुमको अपना मीत लिखूँगी। ।
तुम बिन कैसे भीगी रातें।
तुम बिन रही अधूरी बातें।।
तुम बिन जीवन तार-तार है।
तुम संग प्रेम बेशुमार है।।
तुम प्रेम बेल अगुआई की।
तुम को ही नव प्रीत लिखूँगी।।
तुम जीवन की मधुर तान हो।
तम ही मेरा स्वाभिमान हो।।
छेड़ो दिल का नवल साज अब।
यह हृदय तरंगित होगा तब।।
तुम रामायण की चौपाई ।
मै गीत लिखूँगी रघुराई।।
तुम्ही राष्ट्र की नवल चेतना।
तुम्हे देश का मान लिखूँगी। ।
स्वरचित मौलिक सृजन सौदामिनी-
गीतिका
विषय-मधुमास
2122-2122,2122-212
है निमंत्रण प्रेम का यह,तान छेड़ी हैं नई।
आ गया मधुमास राधे, फूल खिलते हैं कई।।
डोलते है अब भ्रमर भी ,मोहते हैं मन यहाँ।
बोलती कोकिल सुहानी,राधिका तुम हो कहाँ।।
चल रहीं शीतल हवाएँ,देह में सिहरन भरी।
आम्र तरु पर मंजरी है,खिल गयी डालें हरी।।
सज गयी नव यौवना सी,सृष्टि अनुपम है दिखी ।
फिर उठी नव कल्पना हिय ,गीतिका कवि ने लिखी।।
छेड़ते सुर बाँसुरी के,श्याम सुंदर प्रेम के।
देख हर्षित हो रहा मन , दीप जलते हेम के।।
पूर्णिमा की चाँदनी में, बोलती चकवी सुनो,
श्वेत अंबर कह रहा है, दामिनी सपने बुनो।।
ओढ तारों की चुनर अब,मोहती हमको विभा।
मौन है अब शब्द सारे, रूप है ऐसा शिवा।।
नैन करते है प्रतिक्षा,स्वास में तुम हो यहीं।
दर्श दे दो लाड़ली अब,धीर मन धरता नहीं। ।
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भाग 2
सावन की कजरी ,फागुन की होली, दीवाली की रंगोली ,सजाते जीवन बीत रहा था। समय के अनुसार गोद मे तीन बच्चे भी खेले ,उनके लालन-पालन मे और बच्चों की जिम्मेदारी उठाते हुए कब उम्र ढल गई कि पीछे मुड़कर देखने का समय ही नही मिला। हर खुशी बच्चो को समर्पित थी ,किन्तु अब पति- पत्नि दोनो विश्राम की ओर थे, एक-एक हड्डी जबाब देने लगी थी अब तो केवल गुजरे वक्त की यादें शेष थी, बच्चे भी सारे निर्णय स्वयं लिया करते, कभी उन्हे अपनी खुशियों शामिल नही करते ,दोनो वृद्ध अपने मनको यह सोचकर समझा लेते चलो बच्चे खुश हैं अब अपना क्या?अपना जीवन तो अब *सूखे वृक्ष* की तरह है ।
सौदामिनी खरे-
लघुकथा भाग 1
*सूखे वृक्ष*
घर में बड़े बेटे आशीष के छोटे बेटे का विवाह था किसी को दम मारने फुर्सत नहीं थी सभी तैयारियों मे व्यस्त थे बीच- बीच मे विवाह गाए जाने बाले गीत ढोलक की थाप पर सुनाई दे रहे थे।आशीष के पिताजी भी बुजुर्गो मे बेठे सब मेहमान के स्वागत मे लगे थे , बडी बहु भी अपने मायके के मेहमानो की खातिर दारी में व्यस्त थी।
काशी की बूढी ऑंखे चुप- चाप सभी नज़ारे देख रहीं कभी वह नव-वधु और सुन्दर सजी युवतियों को देखती और कभी आस- पास किलकारी मार कर खेलते हुए बच्चों को, कभी गीतो की धुन सुन कर खुद का गुजरा हुआ जमाना याद कर कभी मन मे गुदगुदी होती और वह विचारो की श्रृंखला मे खोई हुई अपने यौवन के दिन याद करती , सजी संवरी काशी साँवले रंग मे लाल जोड़े पर खनकती लाल चूडियों के साथ दुल्हन बन कर ससुराल मे पहली वार कदम रखा था। पति और सास- ससुर रिश्तेदारों बीच समाज के रीति-रिवाज का निर्वहन करते हुए ,
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सजल
2122-12-1222
विषय-दर्द बिकता नहीं जमाने में।
उम्र बीती यहाँ सुख कमाने में।
हारते रहे उन्हे अपना बनाने में।
बाँटते खुशी रहे जहाँ मे देखो,
दर्द पाया यहाँ आशियाने में।
भर गया है दर्द के खजाना मेरा,
हाय दर्द बिकता नहीं जमाने में।
छेड़कर दर्द भरी सरगम वो रुलाता है,
मै लगा हूँ कबसे उसे हँसाने में।
थे उजाड डाले कयी शहर मेरे,
फिर लगेगी सदियाँ इन्हे बसाने में।
अब जगा है सनातनी मेरा,
खो न जाए कही निशाने में।
स्वरचित मौलिक सृजन सौदामिनी खरे दामिनी रायसेन मध्यप्रदेश।-