अगर "शाम" लिखूं ... तो तू "सोच" मुझे फिर "रात" लिखूं . ... तो तेरी "नींद" उड़े जब "ख़्वाब" लिखूं ... तो तुझे कुछ कुछ हो जो मैं "इश्क़" लिखूं .... तो तुझे हो जाए और जब लिखूं "बनारस" ... तो तू लौट आए
हम अदीब से ये तवक़्क़ोअ रखते हैं कि वो अपनी बेदारमग़्ज़ी, अपनी वुसअत-ए-ख़्याल से हमें बेदार करे। उस की निगाह इतनी बारीक और इतनी गहरी हो कि हमें उस के कलाम से रुहानी सरवर और तक़वियत हासिल हो।
लगाया था जो मां ने टीका आंखों के काजल से चुरा कर के आज भी बचपन की उस तस्वीर में वो टीका मुस्कुराता है किया था नाराज अपनी शरारतों से कभी बचपन में मां को मां की उस तस्वीर में उसका गुस्सा मुस्कुराता है