आज कल जब मैं अपनी बाईक पे बैठता हूं
तो मेरे कंधे पे इक हाथ दिखाई देता है
आज कल कोई ज़ुल्फ़ मेरा दिल ख़ुश्बू से महकाती है
याद किसी की आज कल मेरे पीछे बैठ के जाती है-
सिर्फ़ राह देखी, तुम्हे आते हुए नहीं देखा
रोशनी देखी, टूटते हुए तारे को नही देखा-
वक्त में विरक्त हूं
मौन हूं सशक्त हूं
एक अमिट आरेख हूं
मृत्यु का उत्साह हूं-
तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह घाटों पर
डूब कर भी तेरे गंगा से मैं प्यासा निकला
कोई मिलता है तो खुद अपना पता पूछता हूं
मैं खुद की खोज में खोया तो "बनारस" निकला-
हल्के हल्के बढ़ रही हैं....
चेहरे की लकीरें....
नादानी और तजुर्बे का...
बँटवारा हो रहा है...-
आग का बुझना महज संयोग है पानी के लिए
आग पानी से लग जाए तो कुछ बात बने
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अगर "शाम" लिखूं ... तो तू "सोच" मुझे
फिर "रात" लिखूं . ... तो तेरी "नींद" उड़े
जब "ख़्वाब" लिखूं ... तो तुझे कुछ कुछ हो
जो मैं "इश्क़" लिखूं .... तो तुझे हो जाए
और जब लिखूं "बनारस" ... तो तू लौट आए-
मुझे मालूम है तुम उतरोगी मोहब्बत के किस स्टेशन पर
पहले मैं भी उसी रास्ते से आया जाया करता था
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तुम्हारी एक दृष्टि अनेक आकांक्षाओं को समेटे जब पलकों से निकलती है
सूरज से होती हुई जब चांद तक पहुंचती है
आशा में डूबा मेरा मन छूने को दौड़ता है
वो दृष्टि जो तिनका बन मुझे डूबने से बचाती हुई
मेरी हृदय के प्रत्येक उत्तकों को भेदती चली जाती है-
शाश्वत प्रेम में डूबा हुआ मन
रात में चांद की तरफ भागता है
चांद का गुरुर सूरज निखारता है
सितारे गर्दिश में शामिल हो गए
रात की करवटों पे नदियां मुड़ गई
जुगनूओं ने बताया स्याह काली फैल गई-