मनुज विचारों के जाल में जीता रहा,
ए परिंदे तू किस हाल में जीता रहा,
मौत मुस्कुराकर बोली जिंदगी से,
यह तो बस तुझे ख्याल में जीता रहा।-
हारे दुश्मन को गले लगाना है रहमत हमारी,
पीठ पर छूरा घोंपना है फितरत तुम्हारी।।-
अनंत में से कुछ घटा दो, क्या फर्क पड़ता है।
उसके चेहरे से आधा हुस्न हटा दो, क्या फर्क पड़ता है।-
ये रात में दिन का नूर कैसे,
दिख रही बहत्तर हूर कैसे,
बांग्लादेश ने पूछा मम्मी से,
तुम्हारे बुर्खे में सिंदूर कैसे।-
तस्वीर अधूरी रह जाती है बस रंगसाज़ के ज़हन तक,
बिंदिया से नज़र हटती नही कोई कैसे पहुँचे नयन तक!-
वेसे तो रुबाई नहीं लिखी जाती नफ़ीस कवाली पे,
पर कल शाम जब तुम दीया जला रही थी दिवाली पे,
मावस की काली रात में भी दिख पड़ा चाँद छत पे,
जब पड़ी नज़र दीये से टिमटिमाती नाक की बाली पे ।
उस पर तेरी मुस्कुराहट बिखेर रही थी चांदनी इस कदर,
कि मेहताब को भी गम रह गया अपनी कंगाली पे ।
उन कजरारी आँखों के काजल को समझ कर बादल,
अफताब जल्द ढल गया तेरे सुर्ख गालो की लाली पे,
सुक्र है सिर्फ मैं ही गवाह रहा उस रात के हुस्न का,
नहीं तो एक और महाभारत छिड़ जाती पांचाली पे ।-
बदनाम शब्द में भी यारों "नाम" बहुत है,
इस दुनिया के तौर तरीकों में हम नाकाम बहुत है,
सुबह के फरेब में बैठे रहते है यहा मुसाफिर,
जुगनुओं को जीने के लिए एक शाम बहुत है।।-
मैं कच्ची मिट्टी की ईंटों सा,
तुम संगमरमर की धरोहर हो,
मैं एक कुआँ था जो सुख गया,
तुम शिव का मानसरोवर हो ।।
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